अमरूद के पत्ते खाकर जीने वाले संत
ग्रुप से जुड़े कई साधक लम्बे समय से संतो की दिनचर्या बताने का आग्रह करते आये हैं। ताकि वे उनसे प्रेरणा लेकर अपने आध्यात्मिक सफर को निखार सकें।
जो क्रियाएं लोगों को चमत्कार सी लगती हैं वे संतो के लिये सामान्य दिनचर्या होती हैं। आज मै ऐसे संत के बारे में बताऊंगा जो अमरूद के पत्ते खाकर जिंदा रहते थे।
बात 1982 की है। तब मैं कानपुर में रहता था।
वे गर्मियों के दिन थे, 10 वीं की बार्ड परीक्षाएं समाप्त हुई थीं। गर्मियों की छुट्टी घोषित हुई।
तो मैंने गांव जाने का निर्णय लिया।
शहर की अपेक्षा मुझे गांव में रहना हमेशा से ज्यादा अच्छा लगता था। सो छुट्टी होते ही गांव के लिये निकल पड़ा। गांव उन्नाव जिले के दूरदराज क्षेत्र में स्थित है।
उन्नाव और कानपुर जिलों का बंटवारा गंगा जी की धारा से होता है। धारा के इस पार कानपुर उस पार उन्नाव के सीमावर्ती गांव। उन्हीं में हमारा छोटा सा गांव फत्तेपुर भी था।
तब गंगा बैराज नही बना था। उसकी कल्पना भी नही की गई थी। नाव से गंगा नदी पार करके जाना होता था। वही एकमात्र रास्ता था।
रास्ते कच्चे और रेतीले थे, जिन पर कोई सवारी नही चल सकती। साइकिल भी नही। पैदल चलना भी मुश्किल होता था। पैदल चलते हुए पैर रेत में धंस जाते। इस कारण लोग जूते चप्पल उतारकर हाथ में पकड़ लेते थे, तभी चल पाना सम्भव था। गंगा किनारे की रेत में चलते का यही तरीका था।
गांव के रास्ते कई किलोमीटर तक बहुत दुर्गम थे।
इस कारण वहां डाकू शरण लिए रहते थे।
सही मायने में गंगा कटरी के वे क्षेत्र सदियों से दस्यु प्रभावित रहे।
रामायण की रचना करने वाले महर्षि बाल्मीकि भी संत बनने से पहले इसी क्षेत्र के कुख्यात डाकू थे। उनका गिरोह यहां से बिठूर की सीमा तक सक्रिय था। बाद में भगवान विष्णु ने रूप बदलकर खुद को डाकू बाल्मीकि के हवाले किया। और बाल्मीकि को कर्मों के परिणाम खुद भुगतने पड़ते हैं इसकी सीख दी। जिससे बाल्मीकि का हृदय परिवर्तन हुआ और वे डाकू से साधु बन गए।
खराब रास्तों और डाकुओ के डर से उन बीहड़ क्षेत्र में कम ही लोग चला करते थे।
जब मैं जा रहा था तब मेरे अलावा दूर तक कोई नही था। 9 किलोमीटर का रास्ता तय करना था। तकरीबन 6 किलोमीटर चल चुका था।
दाहिनी तरफ गंगा जी की धारा थी, बाई तरफ रेतीला रास्ता।
आगे कुछ दूरी पर गंगा जी की धारा में बैठा कोई दिखा। लगा कोई गंगा नहा रहा है।
पास पहुंचा तो पता चला वे एक साधु थे।
गंगा जी की किनारे साधुओं का विचरण होता ही रहता है। तमाम साधु गंगासागर से गंगोत्री तक की गंगा जी की परिक्रमा कर रहे होते हैं। उनमें अधिकांश सिद्ध संत होते हैं।
गांव के संस्कारों के मुताबिक मैने साधु को सीताराम बोलकर अभिवादन किया। जवाब में साधु ने कुछ कहने की बजाय गंगा में डुबकी लगा ली।
गंगा जी की परिक्रमा करने वाले कई साधु मौन में रहते हैं वे किसी की बात का जवाब नही देते। मुझे लगा ये साधु मौन में हैं, सो बिना रुके आगे बढ़ गया।
कुछ ही आगे गया था कि पीछे से आवाज दी गयी। मै चौक गया। क्योंकि मेरा नाम लिया गया था।
पीछे मुड़कर देखा तो कोई परिचित नही दिख। सिर्फ वही साधु थे जो नीचे गंगा की धारा में जलविहार कर रहे थे।
ये दृश्य मेरे लिये सामान्य था, लेकिन किसी परिचित की मौजूदगी के बिना नाम लिया जाना बहुत असामान्य था।
उस समय मेरी उम्र बच्चों वाली थी। दादी नानी की कहानियों में सकर्क किया जाता था कि अपरिचितों से बचकर रहो। वे साधुवेष धरकर बलि देने के लिये बच्चों को उठा ले जाते हैं। यह सीख दिमाग में घूम गयी।
अब मै डर रहा था।
खुद को बलि वालों से बचाने के लिये तेजी से भागने की योजना दिमाग में घूमने लगी। जलविहार कर रहा साधु अब मुझे बच्चे उठाने वाला बहुरूपिया लगने लगा। मै पलटकर भागने ही वाला था। तभी दोबारा मेरा नाम लेकर आवाज दी गयी। आवाज साधु ने दी थी।
इन्हें मेरा नाम कैसे पता? यह विचार दिमाग में घुमा। मगर इस आश्चर्य से ज्यादा मन मस्तिष्क पर डर हावी था। मै भागने के लिये पीछे पलटा, मगर भाग न सका। बल्कि साधु की तरफ आकर्षित होता चला गया। शायद वह सम्मोहन था।
साधु गंगा जी की धारा से निकलकर बाहर आ गए। उनके शरीर पर सिर्फ एक लंगोटी थी। अपना शरीर सुखाते हुए साधु ने बड़े अधिकार के साथ मुझे निर्देश दिया, कहा मेरे लिये अमरूद के पत्ते तोड़कर ला दो।
इतना कहकर साधु ने मेरी तरह एक झोला फेंका। जो कि साधु की लंगोटी की तरह बोरे की जूट से बना था। अनायास ही मैने झोला उठाया और बाईं तरह चल पड़ा। उधर तकरीबन आधा किलोमीटर दूर अमरूद के पेड़ थे। गंगा जी की पुरानी कटरी में अमरूद के बगीचे अच्छे से तैयार हो जाते हैं। हालांकि इन बगीचों और कुश के झुरमुट में डाकू भी छिपकर रहते थे। उनका डर सबके मन में रहता था, मेरे मन में भी था।
फिर भी मै झोला लिये अमरूद के पेड़ों की तरफ चला जा रहा था। जैसे बहुत जरूरी काम करने जा रहा हूँ, जबकि मस्तिष्क में ऐसे किसी काम की कोई योजना नही थी। दिमाग शून्य सा था। शायद मै गहरे सम्मोहन में था।
पूरा झोला भरकर पत्ते लाना, पीछे से साधु ने आवाज देकर कहा। और कोमल कोमल पत्ते ही तोड़ना।
मै अमरूद के पत्ते ले आया। तब तक साधु गंगा की धारा से निकलकर रास्ते के पास आ गए थे।
पत्तों से भरा झोला साधु के सामने रख दिया।
साधु वहीं बैठ गए, मुझे भी बैठने का इशारा किया। बरबस ही मै उनके पास बैठ गया।
साधु मेरी मनोदशा समझ गए थे। मुझे सामान्य करने के लिये वे मुझसे बातें करने लगे। साथ झोले से निकालकर अमरूद के पत्ते खाने लगे। बोले मै यही खाता हूं, तुम भी खाओगे क्या।
पत्ते खाते हो आप? तब तक मेरे भीतर का भय खत्म हो गया था, आधचर्य बचा था।
हां मै तो यही खाता हूं। साधु ने कहा, गंगा मइया की परिक्रमा करने निकला हूं, खाने के लिये किसी के सहारे न रहना पड़े इसलिये पत्तों से पेट भरना सीख लिया।
मै चुप था, क्या कहूँ क्या पूछूँ समझ नही आ रहा था।
तुमने पूछा नही कि मुझे तुम्हारा नाम कैसे पता चला। साधु ने मेरा सवाल खुद ही पूछ लिया।
मैंने हां में सिर हिलाया। जैसे इस सवाल का जवाब चाह रहा हूँ।
यह एक सिद्धि है, एक समय आएगा जब तुम यह सब बहुत अच्छे से समझ जाओगे। साधु ने कहा अब चलो चलते हैं।
कुछ ही देर में मै साधु के साथ सामान्य हो गया था। उनका अगला पड़ाव बिठूर था।
हमारे रास्ते एक थे। मेरा गांव बिठूर से थोड़ा पहले था। हम बातें करते हुए साथ साथ आगे बढ़े। बातों बातों में पता चला कि वे बहुत ही सिद्ध संत थे। वे बिना खाये कई दिन रह लेते थे। सामान्य रूप से भोजन में अमरूद के पत्ते खाते थे। अमरूद के पत्ते न मिलने पर बेलपत्र या तुलसी पत्ते खाकर पेट भरते थे। कुछ न मिले तो बिना खाये ही रह जाते थे। पीने में सिर्फ गंगा जल ही पीते थे।
सामने आते ही किसी का भी नाम जान लेते थे।
सम्मोहन की विद्या उन्हें आती थी। उन दिनों वे देवदूत सम्मोहन साधना कर रहे थे, ऐसा उन्होंने बताया।
आगे जाकर हमारे रास्ते अलग हो जाने थे।
उससे पहले उन्होंने मुझे देवदूत सम्मोहन साधना के बारे में विस्तार से बताया। उनका कहना था भविष्य में मुझे इसकी जरूरत पड़ेगी। इसलिये देव सम्मोहन मन्त्र भी याद कराया। जो मेरे मस्तिष्क में छप गया।
क्रमशः
*शिव शरणं*