साधक सबके भीतर है- 1

सही समय पर गुरु मिल जाये तो बात बन जाये…


प्रणाम मै शिवांशु
आप में से कई लोगों ने पूछा है कि योग्य साधक कैसे बना जाये. कुछ लोगों ने यक्षिणी साधना की विधि पूछी है. गुरुवर ने इजाजत दी तो यक्षिणी सिद्ध करने की वो विधि जरूर बताऊंगा, जो मैंने अपनाई थी.
मगर पहले साधक की पात्रता पर बात कर ली जाये तो उचित रहेगा. लेकिन इस बारे में सिद्धांत बताऊंगा तो लगेगा कि मै प्रवचन देने बैठ गया. सो आप बीती सुनाता हूँ. शायद इस गूढ़ विषय को समझने के लिये ये तरीका अधिक रुचिकर और सुविधाजनक साबित हो.
तकरीबन15 साल पहले. बात तब की है जब गुरुदेव का रुझान पत्रकारिता से समाप्त सा होने लगा था. तब वे लखनऊ में रह रहे थे. एकाएक उन्होंने पत्रकारिता से जुड़े अपने ज्यादातर साथियों से सम्बन्ध खत्म करने शुरू कर दिये. मुझसे भी. कुछ समय बीता और वे पत्रकारिता की ग्लैमर भरी दुनिया से अलग हो गए.
उनके पत्रकार मित्र और साथी हैरान थे. मगर किसी को उनके अध्यात्म में उतर जाने की खबर न थी. मै बमुश्किल उनसे दोबारा जुड़ पाया. उनसे कई सालों बाद मिला. संतोष हुआ कि उनके मन में मेरे लिये स्नेह कम न हुआ था. मगर वे पूरी तरह बदल चुके थे. तेज तर्रार पत्रकारों वाले तेवरों की जगह शांत और सिद्ध साधक ने ले ली थी.
उन दिनों वे एक श्मशान साधना कर रहे थे. मैंने सुन रखा था श्मशान साधनाओं में शराब और मांस अनिवार्य होता है. पत्रकारिता के 10 बरस के साथ के दौरान उन्हें कभी शराब, मांस को हाथ लगाते न देखा था. सो मन आशंकाओं से भर गया. क्या उन्होंने इन सबका उपयोग शुरू कर दिया?

गुरुवर ने साधना के दौरान मुझे अपने साथ श्मशान में रहने की अनुमति दे दी. मै उनके साथ 2 रात श्मशान में रहा. उनकी साधना में एक भी ऐसी चीज का प्रयोग नही हुआ जो नॉनवेज के दायरे में हो. मन को बड़ी तसल्ली मिली. श्मशान साधना रहस्य सामने आया तो मेरा भी दुनियादारी से मोह भंग होने लगा.
श्मशान में चमत्कार देखकर मेरे भीतर का भी साधक मचल उठा.
मैंने गुरुदेव से एक बार फिर शिष्य के रूप में स्वीकार करने की जिद शुरू कर दी. उन्होंने कहा ये पत्रकारिता नही है जो तुम अपने रसूख के बूते इसमें घुस जाओगे. ये दुनिया अलग और अविश्वसनीय है. दोस्तों और अपनों के बीच हंसी के पात्र हो जाओगे. सो यहां से दूर ही रहो.
मै न माना. पहले भी मेरी जिद के सामने झुककर उन्होंने मुझे स्वीकार था और पत्रकारिता सिखाई थी. फिर स्वीकार किया और अध्यात्म सिखाने को तैयार हो गए. मगर शर्त थी कि मुझे अपनी पात्रता साबित करनी होगी.
मै निश्चिन्त था. क्योंकि पहले भी वे मुझे जो निर्देश देते थे उनके बारे में भला बुरा सोचे बिना कर डालता था. सोचा कि अभी भी ऐसा ही करना होगा.
मै अक्सर उनके साथ साधनाओं में रहने लगा. उस दौरान ब्रह्माण्ड के जिन रहस्यों से आमना सामना हुआ उन्हें देखकर मै साधना विज्ञान का दीवाना हो गया. अब बाहरी दुनिया में अच्छा ही नही लगता था. 24 घण्टे उनके सम्पर्क में रहने का मन करता था.
रोज अर्जी लगता था कि कोई एक सिद्धी करा दीजिये. उनका एक ही जवाब होता. इंतजार करो. इसे सुनकर मन में बड़ी बेचैनी हो जाती. विचार आता मै तो इनके लिये जान तक देने को तैयार हूँ. जो कहें वो सबकुछ करने को तैयार हूँ. फिर ताल मटोल क्यों कर रहे हैं. कई बार तो पत्रकारों की तरह सोच डालता कि लगता है इनके पास मुझे सिद्ध करने लायक कुछ है ही नही.
कई माह बीत गए.
एक दिन उनके जवाब से क्षुब्ध होकर सोचने लगा अब गुरुवर में वो बात नही रही. शायद अब वे मुझे कुछ दे ही नही सकते. उस समय गुरुदेव सामने ही बैठे थे. एकाएक बोल पड़े. मै तुम्हें क्यों दूँ ? मै सकपका गया. मतलब साफ था कि उन्होंने मेरा मन पढ़ लिया. वे कहते जा रहे थे तुम्हारा कोई कर्ज है मुझ पर ? मै तुम्हारा गुलाम हूँ ? या मैंने अपना जीवन तुम्हारे नाम किया हुआ है ? जिसे तुम मेरे प्रति अपना समर्पण या भक्ति मानते हो उसमें इतना दम नही जो मै तुम पर अपना कीमती समय खर्च कर दूँ. पहले इस तथाकठित भक्ति, समर्पण में से ‘कुछ पाने’ की भावना हटाओ तब मेरी साधनाओ के लायक बन पाओगे. तुम पाना तो वो चाहते हो जिससे दुनिया जीत लो, मगर बदले में थोडा समय भी खर्च कर पाने की सामर्थ्य नही. जाओ दोबारा मत आना.
और उन्होंने मुझे भगा दिया. दो साल तक मै उनसे मिलने के लिये छटपटाता रहा. मगर उन्होंने टाइम नही दिया.
इस बीच वे लखनऊ से दिल्ली शिफ्ट हो गए. अब मेरे पास न उनका कांटेक्ट नं. था और न ही पता. मै भी गुरुवर के उन साथियों की सूची में आ गया जो चाहकर भी उन तक पहुंच नही सकते थे.
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
शिव गुरु को प्रणाम
गुरुवर को नमन.

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