गुरुदेव की एकांत साधना: वृतांत….9

राम राम मै अरुण
गुरुदेव की एकांत साधना
शिवांशु जी की बुक से साभार….

साधना का 22 वां दिन.
आज गुरुवर ने अज्ञात जानने की साधना कर रहे whatsapp ग्रुप के साथियों की एनर्जी चेक की. जिसमे पता चला की कुछ लोग बहुत अच्छी कोशिश कर रहे हैं. साधना सिद्धि के लिये गुरुदेव ने उनके ऊर्जा चक्रों और आभामण्डल को उपचारित किया. उनकी कुंडली जाग्रत करने के लिये अतिरिक्त ऊर्जा का प्रवाह किया.

इस बीच कई लोगों ने जानना चाहा है कि गुरूदेव पत्रकार से साधक कैसे बने? उनकी साधना यात्रा को जानना चाहा है।
वैसे तो सब कुछ नियति के मुताबिक घटता है। मगर आज मै आपको इस बदलाव का भौतिक कारण बताता हूं।
बात उन दिनों की है जब गुरूवर टी.वी. पर दिखाये जाने वाले एक न्यूज प्रोग्राम के ब्यूरो इंचार्ज बने। कानपुर छोड़कर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में रहने लगे। क्योंकि ब्यूरो का मुख्यालय वहीं था।
तब वे ज्योतिष और तंत्र में विश्वास नहीं करते थे। उनका टी.वी. न्यूज का अत्यधिक देखा जाने वाला प्रोग्राम पैनी नजर ज्योतिषियों और तांत्रिकों के खिलाफ ही था। मगर संतों की संगत उन्हें तब भी बहुत पसंद थी।
2001 में गुरूदेव को एक बड़े हादसे का सामना करना पड़ा। उनके छोटे भाई सुनील सिंह उर्फ सीताशरण दास ने शरीर छोड़ दिया। वे बाल ब्रह्मचारी संत थे। गुरुदेव से 2 साल छोटे। बहुत छोटी उम्र से ही उन्होंने सन्यास ले लिया था। घर छोड़कर अपने गुरू के आश्रम में रहने चले गए थे। उनके गुरू बहुत ही सिद्ध और प्रसिद्ध थे। उन्होंने सुनील सिंह को संत समाज का नाम सीताशरण दास दिया था। वे अपने गुरू के बहुत चहेते थे।
गुरू के आदेश पर वे कुछ सालों के लिए देश भ्रमण के लिए निकले। मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ के पास पहाड़ी इलाके में उन्हें एक जगह पसंद आ गई। वहीं उन्होंने धूनी जमा दी थी। सीताशरण दास जी अत्यधिक साहसी और हठयोगी थे। महीनों तक खाना-पानी त्यागकर उत्तरोत्तर साधनाओं में लगे रहते थे। एक साधना के दौरान उन्होंने 1 साल का मौन निभाया। वे समाधि विद्या में निपुण थे। कई दिनों तक समाधि में रह लेते थे।
उनकी साधनाएं लोकहित कारी थीं। उन्हें मंत्रों से रोग ठीक करने की विशेष सिद्धी प्राप्त थी। खासतौर से सफेद दाग के रोगी उनके दर से कभी निराश नहीं लौटे। उनके दर्शनार्थियों की भीड़ दिन भर रहती थी। वे हनुमान जी के परम भक्त थे। दो दर्जन से अधिक साधुवेषधारी शिष्य उनके साथ रहकर उनसे साधनाएं सीखते थे। उनके शिष्य और अनुयायी उन्हें स्वामी जी कहकर संबोधित करते थे।
उनके हजारों अनुयायिओं में तमाम प्रभावशाली राजनेता और अधिकारी भी शामिल थे।
अपनी साधनाओं का लाभ जनमानस को पहुंचाकर कुछ ही दिनों में उन्होंने टीकमगढ़ में एक दिव्य आश्रम का निर्माण किया। उनका आश्रम लगभग 500 एकड़ में फैला था। उसमें 300 वर्ग मीटर से भी अधिक बड़ी यज्ञशाला थी। 100 गायों की गौशाला थी। दर्जन भर से ज्यादा हिरन पले थे। जो उनके आस पास ही रहा करते थे।
वहां गरीब बच्चों की निःशुल्क पढ़ाई के लिए गुरुकुल था। आश्रम में जगह जगह मोर और दूसरे पक्षी विचरते दिखते थे।
तब आश्रम बड़ा ही मनोहारी था।
एक रात वहीं से उनकी मृत्यु की खबर आई थी। डाकू गिरोह ने आश्रम पर हमला किया था। उस समय स्वामी जी एक पुराने पीपल की जड़ के नीचे बनी गुप्त गुफा में साधना कर रहे थे। जहां डाकू नहीं पहुंच सकते थे। डाकुओं ने आश्रम में पहुंचकर मारपीट शुरू कर दी।
शिष्यों को बचाने के लिए स्वामी जी ने अपने प्राणों की परवाह नहीं की। उनकी चीख पुकार सुनकर क्षतीय वंशी साहसी स्वामी जी गुफा से बाहर आ गए और डाकुओं को ललकारा। डाकू हथियारों से लैस थे। उनसे संघर्ष निहत्थे स्वामी जी के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ।
सूचना मिलने पर गुरुदेव के साथ तमाम लोग टीकमगढ़ के लिए निकल पड़े। मै भी। झांसी के रास्ते हम लोगों को वहां पहुंचने में कई घंटे लगे।
उस दिन आश्रम का दृष्य बड़ा ही ह़दयविदारक था।
आश्रम के मंदिरों की देव प्रतिमाएं प्राणहीन सी हो गई थीं। वहां स्वामी जी के हजारों अनुयायियों की भीड़ इकट्ठा थी। लोग बच्चों की तरह विलख विलखकर रो रहे थे। जैसे उनका रखवाला चला गया हो। दिन भर स्वामी के साथ हठखेलियां करने वाले हिरन एक जगह इकट्ठे होकर उनके शव को निहार रहे थे। उन बेजुबानों की आंखें भी नम दिखीं। बेजुबान गायें रभा रभाकर रो रही थीं, उनमें से कुछ रस्सियां तोड़कर शव के पास आ गईं थी। उनकी आखें के आसू थम ही नहीं रहे थे।
आश्रम में हर व्यक्ति, हर जीव की आंखें अपने स्वामी जी के लिए रोए चली जा रही थीं। किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था कि उनका संरक्षक चला गया।
स्वामी जी के साधुवेशधारी शिष्य क्रोध और दुख में मरने मारने को उतारू थे। उन्हें बचाने के लिए ही तो स्वामी जी ने अपने प्राण दांव पर लगा दिए थे।

जैसे ही लोगों को पता चला कि स्वामी जी के परिवार के लोग आये हैं, सब हमारी तरफ ही आ गए। वहां मौजूद कई प्रशासनिक अधिकारी पास आ गए। गुरुवर को एक तरफ ले जाकर उन्हें घटना की जानकारी देने लगे। अधिकारियों ने वहां का महौल नियंत्रित करने में गुरुदेव से मदद मांगी। क्योंकि घटना से गुस्साए स्वामी जी के हजारों अनुयायी धरना प्रदर्शन को आमादा थे.
स्वामी जी के शिष्यों ने बताया कि उन दिनों स्वामी जी दस महा विद्याओं में से एक तारादेवी की साधना कर रहे थे।
* उनकी साधना सिद्धी के बहुत करीब थी। तभी इस घटना में उन्हें शरीर छोड़ना पड़ा।*
साधना के लिए देवी की सवा किलो की सोने की मूर्ति बनवाई थी। साथ में कुछ अन्य देवी देवताओं की चांदी की कई मूर्तियां भी थी। आशंका जताई जा रही थी कि डाकुओं को उन मूर्तियों की जानकारी हो गई थी। उन्हीं को लूटने के लिए आश्रम पर हमला हुआ। घटना के बाद से वे मूर्तियां गायब थीं।
दूसरे दिन स्वामी जी के भक्तों और क्षेत्र के तमाम प्रभावशाली लोगों ने आश्रम के संचालन के लिए एक मीटिंग की। जिसमें प्रशासन के भी लोग थे। सबने एकमत से गुरुजी को आश्रम का मालिक घोषित किया और उनसे आश्रम संचालित करने का आग्रह किया।
सबका कहना था स्वामी जी ने करोड़ों का आश्रम अपनी तपस्या से अपने बूते पर खड़ा किया। इसे किसी और के हाथों में नहीं जाना चाहिए। आश्रम का वारिश सक्षम होना चाहिए। जो आश्रम की सम्पत्ति को ठीक से सम्भाल सके और स्वामी जी के हत्यारों को सजा दिला सके।
गुरुदेव ने स्वामी जी के भक्तों को मनाकर दिया। मुझे अच्छी तरह याद है स्वामी जी के भक्तों ने इसके लिए गुरू जी से बहुत याचना की थी। उनके इंकार पर बहुत रोए थे वे लोग। गुरुदेव ने कहा था मै संत समाज और उनकी पद्धति से परिचित नहीं सो ये जिम्मेदारी नहीं निभा सकता।
गुरुदेव के कहने पर स्वामी जी के एक शिष्य को वहां की जिम्मेदारी सौंपी गई।
मै गुरुवर की कार्य पद्धति से भलीभांति परिचित था। उन्होंने लौटने से पहले टीकमगढ़ में अपने खबरियों का पूरा नेटवर्क खड़ा कर दिया। उनके लोगों ने डाकू गिरोह के हर उस व्यक्ति का पता लगा लिया जो आश्रम के हमले में शामिल था। कुछ समय बाद उन सभी डाकुओं के बारी बारी से मरने की खबर मिली। उनको किसने मारा बस ये पता न चल सका। शायद भगवान ने उन्हें इस तरह से दंडित किया।
मैने इस घटना के बाद से गुरुदेव में बैराग्य के भाव उत्पन्न होते देखें। धीरे धीरे वे पत्रकारिता को छोड़ते गए।
उनका रुझान अध्यात्मिकता में बढ़ता गया।
इस बीच कुछ लोगों ने कहना शुरु किया कि स्वामी जी ने मरणोपरांत गुरुदेव से सम्पर्क बनाये रखा और धीरे-धीरे अपनी शक्तियां और सिद्धियां उनमें ट्रांसफर कर दीं। उनके कारण ही गुरुदेव पत्रकारिता के जबरदस्त ग्लैमर को छोड़कर साधना के पथ पर आकर्षित हुए।
लेकिन मुझे एेसा कभी नहीं लगा।
गुरुदेव के लिए विषय बहुत भावुकता का है इसलिए इस बारे में मै गुरुदेव से कभी खुलकर पूछ भी न सका।
आज हम सब हनुमान भक्त स्वामी जी की आत्मा की परम शांति के लिए भगवान शिव से प्रार्थना करेंगे।
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
शिवगुरू को प्रणाम
गुरुदेव को नमन.

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

%d bloggers like this: