साधक जो छोटी सी गोली मुंह में रखते ही हवा में उड़ चलते हैं
राम राम, मै शिवप्रिया
गुरू जी के निकट शिष्य शिवांशु जी की आध्यात्मिक यात्रा का ये अंश कल्पना से परे है. जब मैने इसे पढ़ा तो आश्चर्यचकित रह गई. शिवांशु जी ने ई बुक और वीडियो सिरीज के लिये कई साधना वृतांत लिखे हैं. जो एडिटिंग और प्रकाशन अनुमति के लिये गुरू जी के पास प्रतीक्षारत हैं. जब कभी समय मिलता है, तब गुरू जी उन्हें पढ़कर एडिट करते हैं. उसी बीच कई बार मुझे ये खजाना पढ़ने को मिल जाता है. तो मै आपके साथ शेयर कर लेती हूं.
अपने एक वृतांत में उन्होंने हवा में उड़ते साधू का आंखो देखा हाल लिखा है. सिद्ध साधू से प्राप्त साधना विधान भी लिखा है. साथ ही गुरू जी से मिले उसके वैज्ञानिक पक्ष को भी विस्तार से लिखा है. मै यहां उच्च साधकों की प्रेरणा के लिये उनके वृतांत को उन्हीं के शब्दों में शेयर कर रही हूं. लेकिन एक बात के लिये सावधान रहें. सरल लगने के बावजूद बिना किसी सक्षम गुरू के मार्गदर्शन के वायुगमन की साधना विधि न अपनायें. ये बहुत बहुत खतरनाक साबित हो सकता है.
मै यहां शिवांशु जी के शब्दों में ही उनका वृतांत शेयर कर रही हूं.
शिवांशु जी का वृतांत…
अब तक हमने जाना कि हमारा शरीर पंच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के संयोग से बना है. इनमें पृथ्वी तत्व गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित होता है. जिसके कारण इंशान का शरीर जमीन से जुड़ा रहता है. यदि पृथ्वी तत्व के प्रभाव को कम कर दिया जाये तो शरीर पर गुरुत्वाकर्षण का असर कम हो जाएगा. विशेष स्तर तक इसे कम करते जायें तो गुरुत्वाकर्षण का असर खत्म हो जाएगा. एेसे में शरीर जमीन छोड़कर हवा में उड़ जाता है.
अनादि काल से इस सिद्धी या विज्ञान की भाषा में कहें तो तकनीक का उपयोग होता आया है.
सिद्ध संत प्रभु जी द्वारा बताया जा रहा हवा में उड़कर चलने का विज्ञान बड़ा ही अद्भुत लगा. गुरुवर ने इसके बारे में मुझे कभी भी विस्तार से नही बताया. मै जानता था कि वे आगे भी इस पर मुझसे कोई चर्चा नही करेंगे.
दरअसल जो साधना सिद्धी उन्होंने नही की है और भविष्य में करना भी नही चाहते. उसके बारे में वे न कोई चर्चा करते हैं और न ही जानकारी देते हैं. वे एेसे विषयों की चर्चा-परिचर्चा में अपना समय जाया नही करते जिसका उपयोग उनकी योजना में शामिल न हो.
मेरी जिज्ञासा वायुगमन को समझने की थी. ये मुझे बहुत अलौकिक और आकर्षक लग रहा था. ये सोचकर कि गुरुदेव इस बारे में कुछ नही बताएंगे, मै उनके अध्यात्मिक मित्र प्रभु जी से सबकुछ जान लेने को उत्सुक था. इसके लिये प्रभु जी से अधिक सक्षम कोई मिल भी नही सकता था. क्योंकि वे खुद भी वायुगमन की सिद्धी किये थे. खुध भी हर रोज वायुगमन करते थे.
हलांकि प्रभु जी बहुत ही कम बातें करते थे. उनके एक वाक्य से ही सारा निष्कर्ष निकाल लेना पड़ता था. उनके शिष्य गिरधर जी और मकरंद जी तो उनकी आवाज सुनने को बेकरार रहते थे. मगर प्रभु जी मेरे सवालों के जवाब आसानी से दे दिया करते। शायद उन्हें मुझसे सहानुभूति थी. सहानुभूति इस बात की कि लम्बा सफर तय करके आने के बाद भी मै बिना साधना किये वापस भेजा जा रहा था.
मैने प्रभु जी से एक सवाल पूछा था. क्या हवा में चलने वाले सिद्ध योगी, साधक अपने साथ किसी और को भी ले जा सकते हैं.
मेरे सवाल पर वे बहुत तेज हंसे थे. बोले यदि मै अभी हां कर दूं तो तुम कहोगे तुम्हें भी अपने साथ वायुगमन कराऊं. मगर मै एेसा नही कर सकता. क्योंकि मेरी सिद्धी में एेसा कर पाना सम्भव नही. मै तो कर सकता हूं लेकिन अपने साथ किसी और को साथ नही उड़ा सकता. किन्तु कुछ समय पश्चात् गिरधर आपको लेकर उड़ सकेगा.
उनकी बातों से रहस्य खुला कि गिरधर जी भी वायुगमन साधना कर रहे थे. मगर इतनी निकटता के बाद भी उन्होंने मुझे इसकी भनक तक नही लगने दी.
गिरधर की साधना विधि जानना चाहो तो उसी से बात कर लो. प्रभु जी ने एेसा कहकर जैसे गिरधर जी को मुझे अपनी साधना के बारे में बताने का आदेश दे दिया. गिरधर जी उस समय पास ही खड़े थे. उन्होंने सिर झुका कर प्रभु जी से कहा जैसी आपकी आज्ञा प्रभु जी.
उसके बाद मै गिरधर जी की साधना जानने के लिये बेचैन हो गया. मगर उन्हें बताने की कोई जल्दी न थी. उन्होंने रात में सोने के समय बताने का आश्वासन दिया.
रात में उन्होंने जो बताया वो विशुद्ध रूप से रसायन विज्ञान था.
उन्होंने बताया कि इस साधना में एक वायु गुटिका सिद्ध की जाती है. जो पारे से बनती है. पारे को संस्कारित करने का रसायन हमारे शास्त्रों में मौजूद है. पारे के संस्कार का मतलब होता है उसका शोधन करके ग्रहणशीलता को उत्पन्न करना.
पारा प्रकृति की एेसी धातु है जो अपना स्वरूप बदलने की क्षमता रखती है. उसमें किसी भी दूसरी धातु को अपने में मिला लेने की क्षमता होती है. हर धातु में अलग अलग तत्व होते हैं. पारे में समभाव तत्व है. उसे जिस धातु के साथ मिलाया जाये उसे अपने भीतर समा लेता है. यही क्षमता पारे को तंत्र विज्ञान में विशेष स्थान दिलाती है. तंत्र विज्ञान का मानना है कि पारे में पंच तत्वों को भी खा जाने अर्थात अपने में समा लेने की क्षमता होती है.
पारद तंत्र पर काम करने वालों का दावा है कि एक स्तर तक पहुंचने पर पारा लोहे को सोने में बदल देता है. तब इसे पारस मणि या पारस बटिया कहते हैं.
एक विशेष स्तर तक पारे को संस्कारित किया जाये तो वो पृत्थी तत्व को खा जाता है यानि उसे निष्प्रभावी कर देता है. तब उसके सहारे हवा में उड़कर चला जा सकता है. ये विशेष स्तर हैं बारहवां चरण. जहां पहुंचते पहुंचते पारा चांदी को खाने लगता है. किसी दातु को खा जाना ये पारे के जानकारों की तकनीकी भाषा है. पारे का शोधन करते हुए जब बारहवें चरण की प्रक्रिया पूरी की जाती है तो वो चांदी को अपने भीतर मिला लेता है.
गिरधर जी ने आगे बताया कि जब पारा चांदी को खाने लगे तब उसे स्थिर करके गोली बना ली जायें. फिर उस गोली को स्वर्ण की अग्नि के संयोग से शोधित किया जाये. तो वह पृथ्वी तत्व को भी खाने लगती है. दरअसल गोली एक परिधि में सघन तरंगों का विस्तार करती है. वे तरंगे पृथ्वी तत्व की तरंगों को काटकर उन्हें निष्प्रभावी कर देती हैं. उनके निष्प्रभावी होते ही गुरुत्वाकर्षण बेअसर हो जाता है.
इसे वायु गुटिका कहा जाता है. कुछ तांत्रिक इसे आकाश गुटिका के नाम से भी जानते हैं. यदि इस गुटिका को बिल्ली की नाल के साथ संयोजित करके त्रिधातु पूरित कर लिया जाये. तो इसमें अदृष्य करने की क्षमता पैदा हो जाती है.
बिल्ली जब बच्चा देती है तो उसके अंगर से मांस की एक झिल्ली निकलती है. बच्चेदानी के अंदर इसी के भीतर बच्चे पलते हैं. इसे बिल्ली की नाल या बिल्ली की झेर कहते हैं. इसमें पृथ्वी तत्व को नियंत्रित करने की जबरदस्त प्राकृतिक क्षमता होती है. इसी कारण धन आकर्षण के लिये इसका प्रयोग बहुतायत से किया जाता है. तंत्र के जानकार यहां तक कहते हैं कि बिल्ली की नाल जहां स्थापित होती है. जहां कभी भी धन की कमी नही होती.
उर्जा विज्ञान कहता है जिसका मूलाधार चक्र सक्षम होता है उसके जीवन में धन की कमी कभी नही होती. मूलाधार चक्र पृथ्वी तत्व से संचालित होता है.
गिरधर जी ने बताया कि वायुगुटिका मुंह में रखते ही उसका असर शरीर के भीतर फैल जाता है. शरीर गुरुत्वाकर्षण के दबाव से मुक्त हो जाता है. और हवा में उड़ जाता है. मुंह में रखी गुटिका को मुंह के भीतर ही जबान से स्टेयरिंग की तरह संचालित किया जाता है. जिससे हवा में चलने की गति और दिशा निर्धारित होती है.
यदि गुटिका बिल्ली के नाल के साथ सिद्ध की गई है तो उसे मुंह में रखते ही साधक अदृश्य होकर उड़ने लगता है. गुटिका की परिधि में जितने भी लोग होते हैं वे सब उड़ सकते हैं. इस विधि का उपयोग ऋषि मुनि हमेशा से करते आये हैं. आगे भी होता रहेगा.
तो क्या सिर्फ पारे की गोली तैयार कर लेने मात्र से इतनी क्षमतावान हो जाती है. या उसे सिद्ध भी करना पड़ता है. मैने पूछा.
पारे को संस्कारित करने के दौरान ही कुछ साधनाओं के माध्यम से उसे संकल्पित किया जाता है. जिसे आप उर्जा विज्ञान की भाषा में प्रोग्रामिंग करना कहते हैं. गिरधर जी ने बताया.
आपकी साधना कब तक पूर्ण हो जाएगी. मैने पूछा ता.
जब आप अगली बार मिलेंगे, तो शायद हम साथ साथ उड़ सकें.
गिरधर जी का जवाब सुनकर मेरे मन में भविष्य की उत्सुकता समा गई.
प्रभु जी से वायुगमन की कई और अलौकिक साधनाओं की जानकारी मिली. जिनका जिक्र मै फिर किसी अंक में करूंगा.