एक सिद्धी हवा में उड़ने की-1

flying-manसाधु को हवा में उड़ता देख मेरे होश उड़ गये
राम राम, मै शिवप्रिया
गुरू जी के निकट शिष्य शिवांशु जी की आध्यात्मिक यात्रा का ये अंश कल्पना से परे है. जब मैने इसे पढ़ा तो आश्चर्यचकित रह गई. शिवांशु जी ने ई बुक और वीडियो सिरीज के लिये कई साधना वृतांत लिखे हैं. जो एडिटिंग और प्रकाशन अनुमति के लिये गुरू जी के पास प्रतीक्षारत हैं. जब कभी समय मिलता है, तब गुरू जी उन्हें पढ़कर एडिट करते हैं. उसी बीच कई बार मुझे ये खजाना पढ़ने को मिल जाता है. तो मै आपके साथ शेयर कर लेती हूं.
अपने एक वृतांत में उन्होंने हवा में उड़ते साधू का आंखो देखा हाल लिखा है. सिद्ध साधू से प्राप्त साधना विधान भी लिखा है. साथ ही गुरू जी से मिले उसके वैज्ञानिक पक्ष को भी विस्तार से लिखा है. मै यहां उच्च साधकों की प्रेरणा के लिये उनके वृतांत को उन्हीं के शब्दों में शेयर कर रही हूं. लेकिन एक बात के लिये सावधान रहें. सरल लगने के बावजूद बिना किसी सक्षम गुरू के मार्गदर्शन के वायुगमन की साधना विधि न अपनायें. ये बहुत बहुत खतरनाक साबित हो सकता है.
मै यहां शिवांशु जी के शब्दों में ही उनका वृतांत शेयर कर रही हूं.
शिवांशु जी का वृतांत…
उन दिनों मेरे मन में बहुत विचलन था.
सीधे कहें तो उलझन थी. उलझन की वजह थी विश्वास की कमी.
अपने प्रति विश्वास की कमी.
कई सालों से गुरूवर की साधनाओं में शामिल हो रहा था. गुरुदेव व उनके अध्यात्मिक मित्रों के बीच कई तरह के चमत्कारिक अनुभव हो चुके थे. अध्यात्मिक दुनिया के कई एेसे रहस्य नजदीक से देख चुका था, जिनके बारे में लोग सोच भी नही सकते.
मन में तड़प थी कि मै भी एेसी ही कोई चमत्कारिक सिद्धी ले लूं.
मगर गुरुवर एेसी किसी साधना की अनुमति ही नही दे रहे थे. जब भी आग्रह करता, वे बिना कारण बताये बात को टाल देते.
इस कारण सोचने लगा था कि शायद मुझमें सक्षम साधनायें करनी की योग्यता ही नही है.
यही सोचकर विचलन हो रहा था, उलझन हो रही थी.
एक दिन मै गुरुवर से बड़ी साधना करने की जिद कर बैठा.
वे कुछ देर विचारमग्न रहे. फिर बोले ठीक है, तैयार हो जाओ.
उनकी अनुमति से मै खुशी से उछल पड़ा.
तभी गुरूवर ने कहा कि एक शर्त होगी.
मै शांत हो गया, इतना कि कह सकते हैं उदास हो गया. क्योंकि उनकी शर्तें मामूली नही होतीं.
वे बोले जिस साधना के लिये भेज रहा हूं, उसके सिद्धों को देखकर सामान्य रहना होगा.
मै समझ गया. दरअसल सिद्ध लोगों के चमत्कार आंखों से देखते ही मै चमत्कृत हो जाता करता था. काफी देर बाद सामान्य हो पाता था.
गुरुदेव कहते हैं सिद्धियों के नतीजे देखकर विस्मित हो जाने वाले लोग सामान्य मनोदशा वाले होते हैं. जबकि सिद्धियों के लिये विशेष मनोदशा की जरूरत होती है. सामान्य लोगों को जो बातें विशेष लगती हैं वे सिद्ध लोगों के लिये सामन्य होती हैं.
काफी समय से मै खुद को विस्मित करने वाली अध्यात्मिक स्थितियों में भी सामन्य रखने की कोशिश कर रहा था. मेरा विश्वास था कि अब मै इसके लिये तैयार था. सो गुरुवर से कहा अध्यात्मिक चमत्कारों को देखकर बिल्कुल हैरान नही हूंगा.
गुरुदेव ने मेरे चेहरे पर पूर्ण दृष्टि डाली. मुस्कराये. जैसे मैने कोई बचकाना बात कह दी हो.
वे बोले तैयार हो जाओ. अगले हफ्ते तुम्हें दार्जलिंग जाना है.
मै खुश हो गया. आफिस में छुट्टी की अर्जी लगा दी.
5 दिन बाद मै दार्जलिंग के लिये निकल गया.
वहां गुरुदेव के एक मित्र मिले. वे एक होटल के मालिक थे. रात में उन्होंने अपने होटल में ही रोका. उनके साथ देर रात तक बातें करके मैने दार्जलिंंग और आस पास के क्षेत्रों की जानकारी हासिल कर ली. अगली दोपहर होटल का मैनेजर मुझे अपनी गाड़ी में लेकर निकला. लगभग ढ़ाई घंटे चल कर हम दार्जलिंग से काफी दूर गांवों की तरफ गए. वहां एक गांव में भगवावस्त्र धारी एक व्यक्ति मिला. होटल का मैनेजर मुझे उसके साथ छोड़कर वापस लौट गया.
देखने में वह व्यक्ति योगियों की तरह था. चेहरे पर तेज और शरीर सुडौल.
उनका नाम गिरधर था. उनके हाथ में मंहगा मोबाइल था. गिरधर के हाव भाव, चाल ढाल से संस्कारों की सम्पन्नता ढलकती थी. उनका व्यक्तित्व बहुत सम्मोहक था.
गिरधर की बातों से लगा कि वे गुरुवर को बहुत अच्ठी तरह जानते थे. वे गुरुदेव का बहुत सम्मान करते थे. इस नाते मेरे प्रति भी बड़ा अपनापन दिखा रहे थे. कुछ ही देर में हम एक दूसरे से परिचित हो गये. अपने से लगने लगे.
गिरधर मुझे पगदंडियों के रास्ते जंगलों की तरफ ले जा रहे थे. कई किलोमीटर तक रास्ते सवारी जाने लायक थे. लोग वहां बाइक और साइकिलों से आ जा रहे थे. फिर भी गिरधर जी मुझे पैदल लिये जा रहे थे.
आगे जंगल शुरू हो गया. वहां सिर्फ पैदल ही चला जा सकता था. हम चलते रहे.
जंगलों में अंधेरा जल्दी फैलने लगता है. कुछ ही किलोमीटर चले होंगे कि रास्ते दिखने बंद हो गये. गिरधर जी को शायद इसका अंदेशा था. उन्होंने अपने बैग से दो टार्च निकालीं. एक मुझे दे दी. फिर हम टार्चों के सहारे चलने लगे. कई घंटे चलते रहे.
रास्ते में एक जगह एक सन्यासी की कुटिया मिली. कुटिया में सन्यासी और उनके दो शिष्य थे.
वे लोग गिरधर जी को जानते थे.
हमने रात वहीं बिताई.
सुबह तड़के ही आगे के लिये रवाना हो गये. गिरधर जी ने बताया कि बस कुछ ही घंटों में पहुंच जाएंगे.
मै समझ नही पा रहा था कि जंगल इतना लम्बा है. या हम गोल मोल रास्तों में घूम रहे हैं.
चलते चलते गिरधर जी ने आसमान की तरफ देखते हुए प्रणाम किया.
मेरा ध्यान उधर गया तो, नजरें उठाकर ऊपर देखा.
मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. जो देखा उस पर यकीन नही हो रहा था.
गुरुवर के समक्ष किया मेरा दावा टूट गया. मै चमत्कृत हो गया था. मै हैरान हो गया था. मै विस्मित हो गया था. मेरी सोच अभी भी सामन्य ही थी. मै उच्च साधकों वाली सोच में नही पहुंच पाया था.
वे मेरे गुरुदेव हैं. मुझे आश्चर्य चकित देखकर गिरधर जी ने आसमान की तरफ इशारा करते हुए बताया.
वहां ऊपर एक साधु हवा में उड़ रहे थे.
उन्हें ही देखकर मेरे होश उड़ गये थे.
….. क्रमशः।

 

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