गुरु जी की हिमालय साधना…14

राम राम, मै शिवप्रिया
हिमालय साधना के दौरान गुरु जी ने गुप्तकाशी को अपना मुकाम बनाया. वहां से केदार घाटी के अन्य सिद्ध स्थलों पर जाकर साधनायें कीं. हिमालय साधना से वापस लौटने पर मैने उनसे साधना वृतांत बताने का अाग्रह किया. ताकि मृत्युंजय योग से जुड़े साधक उनके अनुभवों का लाभ उठा सकें. यहां मै उन्हीं के शब्दों में उनका साधना वृतांत लिख रही हूँ।
|| गुरु जी ने आगे बताया…||
रुच्छ महादेव आने वाले लोग पहले रुच्छ महादेव के विशाल पर जल चढ़ाते हैं. फिर कोटि महेश्वरी के दर्शन करते हैं. मैने भी दर्शन किये. कोटि महेश्वरी को शिव सहस्त्र नाम सुनाया. वे बहुत खुश हुई.
इस स्थान को कुछ लोग कोटि महेश्वरी के नाम से भी जानते हैं. क्योंकि देवी यहां अपने करोड़ों रूपों में खुद ही रहने चली आयी थीं. मान्यता है कि वे अभी भी यहां रहती हैं. अलौकिक जगह के बारे में जानने के लिये मैने पुराने स्थनीय लोगों से बात की. मंदिर के पास एक संत मिले. जो लगभग 15 सालों से वहां रहकर साधना करते हैं. वे मूल रूप से राजस्थान के रहने वाले हैं. सर्दियों में राजस्थान चले जाते हैं. बाकी समय यही रहते हैं.
मैने अपने साथ गये लोगों को हटाकर उनसे एकांत में बातचीत की. उन्होंने इस स्थान के कई रहस्य उजागर किये. उनसे वहां की दृश्य अदृश्य शक्तियों की जानकारी मिली. मैने उन शक्तियों से रूबरू होने का मन बनाया. सरस्वती नदी के पानी में लटकी एक विशाल पत्थर सिला पर बैठकर साधना की. कई शक्तियों से साक्षात्कार हुआ. इस अनुभव पर चर्चा करने से पहले जान लेते हैं कि नीलकंठ और रुच्छ महादेव में रिश्ता क्या है.
इसके लिये बात की शुरुआत होगी समुद्र मंथन से. हम बचपन से पढ़ते सुनते आये हैं कि समुद्र मंथन में जहर निकला. सभी के अनुरोध पर भोलेनाथ ने उसे पी लिया. खुद को बचाने के लिये विष को पेट में नही जाने दिया. बल्कि गले में ही रोक लिया. इसीलिये वे नीलकंठ कहलाये. बस इतना ही सुनकर लगता है, कोई साधारण सी देव घटना रही होगी. लेकिन क्या वाकई ये साधारण घटना थी. बिल्कुल नही. ये असाधारण से भी असाधारण घटना थी. यदि भगवान शिव ने उस विष को न पिया होता. तो उसके प्रभाव से पूरा ब्रह्मांड नष्ट हो जाता. न देवता बचते न राक्षस. दूसरे जीवों की तो कोई विसात ही नही.
समुद्र मंथन में सृष्टि को समाप्त कर देने वाला विष निकला. दुनिया को बचाने के लिये भगवान शिव ने विष पी लिया. अपने प्राण बचाने के लिये विष को गले में ही रोक लिया. पेट में नहीं जाने दिया. गले में विष होने के कारण वे न कुछ खा सकते थे न पी सकते थे. न बोल सकते थे. उनका किसी तरह का उपचार भी नही हो सकता था. विष का वेग उनके भीतर भयंकर ताप भर रहा था. उसकी जलन और भयावह पीड़ा से बचने के लिये वे हिमालय की ठंडी घाटियों में आ गये. वे कैलाश की तरफ जाना चाहते थे. बर्फीले पहाड़ों की बढ़े. तो विष की तपन से वहां की बर्फ पिघलने लगी. हिमालय के ग्लैशियर पिघलने का खतरा पैदा हो गया. जिससे जल प्रलय आ सकती थी. एेसे में पूरी धरती का विनाश हो जाता.
इस खतरे को टालने के लिये वे कैलाश की तरफ नही गये. विष की तपन से काले हो चले थे. उनका शरीर जल रहा था. उन्होंने एेसी जगह तलाशी जहां शरीर की तपन मिट सके. वे सरस्वती और मंदाकिनी के इसी संगम पर आ गये. जरूरी ये था कि जिस पानी से तपन मिटाई जाये. उसका भी शोधन तुरंत हो. वर्ना वही पानी आगे जाकर जीवों के लिये विनाशकारी हो जाता. यहां मंदाकिनी के पानी में बर्फ सी ठंडक है. पानी में पैर रखते ही जमने से लगते हैं. महादेव ने मंदाकिनी की धारा को चुना. जो कुछ ही मीटर आगे जाकर सरस्वती की धारा में मिलती है. इस तरह उनके शरीर के जहर से दूषित होने वाला मंदाकिनी का पानी तुरंत ही सरस्वती की धारा में मिलकर शोधित हो जाने वाला था. वे मंदाकिनी की धारा के बीच एक विशाल पत्थर पर लेट गये.
इसी पत्थर के सहारे उन्होंने मंदाकिनी में डुबकी लगायी. लम्बे समय तक वे ताप मिटाने के लिये मंदाकिनी में डुबकी लगाते रहे. उनके शरीर की तपन से मंदाकिनी का पानी काला पड़ गया. विष के ताप से आस पास के पत्थर तक काले पड़ गये. इसी लिये मदाकिनी को यहां काली गंगा कहा जाता है. काफी समय लगा दुखहारी शिव को इस कष्ट को कम कर पाने में.
शरीर की जलन कम हुई तो उन्होंने जहर को निष्क्रिय करने के बारे में सोचा. उन्हें एेसे स्थान का चयन करना था, जो ठंडा भी हो और निर्जन भी. वहां जल और वायु के प्रदूषण से जीवों के मरने का खतरा न हो. जैसे न्यूक्लियर बम से हवा,पानी,धरती,आकाश हर जगह जानलेवा रेडिएशन का खतरा रहता है. उसी तरह उनके गले में फंसे जहर से हर तरफ प्रदूषण का खतरा था. वह भी सैकड़ों न्यूक्लियर बमों से ज्यादा.
आखिर एेसा क्या था उस विष में. दरअसल विष समुद्र की अथाह गहराईयों में निष्क्रिय तापमान पर पड़ा था. इसलिये कोई नुकसान नही कर रहा था. ठीक उसी तरह जैसे स्टोर में पड़ा रेडियम या यूरेनियम कोई नुकसान नही करता. समुद्र मंथन एक रासायनिक क्रिया थी. जिसके तहत विष न सिर्फ समुद्र की गहराईयों से निकलकर बाहर आ गया. बल्कि उसके सभी पार्टिकिल एक्टिवेट भी हो गये. ठीक उसी तरह से जैसे रेडियम या यूरेनियम के अणुणों में रसायनिक विस्फोट होने के बाद वे न्यूक्लियर बम बनकर विनाश करते हैं. उनकी तपन सब कुछ स्वाहा कर देती है.
इसी तरह विष के पार्टिकिल भी एक्टिवेट हो चुके थे. यदि महादेव उसे पी न डालते तो उसकी तपन और रासायनिक प्रदुषण पूरे ब्रह्मांड को नष्ट कर देता. धरती का पानी सुखा देते. देखते ही देखते लोग और वस्तुवें भाप बनकर हवा में उड़े जातीं. अकल्पनीय तापमान से धरती पर विस्फोट शुरू हो जाते. इतने भयानक विस्पोट की धरती अपनी धुरी से घिसक जाती. अपनी कक्षा से हट जाती. वह अतंरीक्ष में दूसरे ग्रहों से टकरा जाती. वे ग्रह भी अपनी कक्षा से हटकर दूसरे ग्रहों से टकराते.. वे सब आपस में टकराकर नष्ट हो जाते. विभिन्न ग्रहों पर बसे देवलोक, इंद्रलोक, ब्रह्मलोक, यक्षलोक सहित किसी के बचने की सम्भावना न थी.
यही कारण था कि जनकल्याणकारी शिव को जैसे ही विष के सक्रिय होने की सूचना मिली. वे बिना समय गवायें वहां पहुंच गये. त्रिदेवों को विष की भयानकता का पूरा आभास था. मगर उसे निष्क्रिय कर पाना ब्रह्मा और विष्णु के वस की बात नही थी. विष्णु जी चाहते तो विष को किसी और ब्रह्मांड में फेंक सकते थे. मगर वहां भी एेसी ही तबाही होती. समुद्र मंथन स्थल पर पहुंचते ही शिव जी ने तत्काल विष को पी लिया. वे नही चाहते थे कि तबाही शुरू हो. जबकि उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि ये विष उनकी क्या हालत करेगा.
विष पीकर महायोगी शिव ने योग बल से उसे अपने कंठ में रोक लिया. इससे विष का फैलाव कुछ समय के लिये स्थिर हो गया. लेकिन जल्दी ही उसका प्रभाव शिव जी पर भारी पीड़ा के रूप में सामने आया. मंदाकिनी के जल में लेटकर उन्होंने अपनी तकलीफ कम की. उसके बाद उन्हें विष को उसी तापमान पर लाना था जिस पर वो समुद्र की गहराईयों में सुरक्षित पड़ा था. इसके लिये उपयुक्त स्थान की जरूरत थी. और लम्बे समय की भी.
भगवान शिव ने इसके लिये हिमालय की शुरुआती पर्वत श्रेणियों मणिकूट और विष्णुकूट का चयन किया. वे उनके मध्य की एक घाटी में चले गये. जहां जन जीवन न के बराबर था. साथ ही ये घाटी ठंडी थी. यहां के पहाड़ों पर बर्फ नही है. इसलिये विष की गर्मी से उनके पिघलने का खतरा नही था. महादेव उसी घाटी में समाधि लगाकर बैठ गये. समाधि में उन्होंने सांसों और रक्तसंचार सहित शरीर की सभी गतिविधियों को रोक लिया. जिससे उनके शरीर में विष का फैलाव भी रुक गया. अब इंतजार किया जाना था विष के निष्क्रिय होने का.
ये इंतजार 60 हजार साल लम्बा था. इस बीच शिव जी को लेकर देवताओं में आशंकायें पैदा हो गई. किसी को पता ही नही था कि वे कहां गये. आशंका पैदा हुई की विष ने उनकी जान ले ली. सब तलाशने लगे. कोई शिव को तो कोई उनके शव को. 20 हजार साल लगे उन्हें ढ़ूंढ़ने में. महादेव यहां ध्यानस्थ मिले. सभी देवता आये. मगर कोई टिक न सका. क्योंकि समाधि के बाद भी विष की तपन चारो तरफ फैली थी. दरअसल विष की तपन से ही उन्हें ढूंढ़ा जा सकता.
20 हजार साल बीत जाने के बाद भी विष की जलन इतनी थी कि कोई देवता वहां टिक न सका. मगर माता पार्वती वहां से नही गईं. वे अपने पति के प्राणों की रक्षा के लिये वहीं रुकी रहीं. जहां पार्वती पति समाधिस्थ थे वहां तो वे भी नही रुक सकीं. वहां से लगभग 3 किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पर उन्होंने अपने रुकने का स्थान बनाया. वहां रहकर वे पति के प्राणों की रक्षा के लिये तप करने लगीं. वे वहां 40 हजार साल तक कठोर तप करती रहीं.
इस तरह 60 हजार साल बीत गये. विष निष्क्रिय हुआ. मां पार्वती पहाड़ों से उतरकर सदाशिव के पास आईं. फिर वे वहां से कैलाश के लिये रवाना हुए. कैलाश जाने से पहले मांता पार्वती ने जम चुके विष को कण्ठ से निकाल कर वहीं स्थापित करने का आग्रह किया. भगवान शिव ने गले से निकालकर विष को वहीं स्थापित कर दिया. मां पार्वती ने उसे नीलकंठ शिवलिंग का नाम दिया. यही कारण है कि नीलकंठ का शिवलिंग दूसरे शिवलिंग के आकार का नही है. बल्कि गले के आकार में ऊपर से गोल कटा हुआ दिखता है. नीचे छाती के आकार में है. इस जगह को अब नीलकंठ के नाम से जाना जाता है. जो ऋषीकेश के पास है. जहां मां पार्वती ने तप किया था उस जगह को भुवनेश्वरी कहा जाता है. वहां गुप्त गंगा भी हैं. जिसके बारे में हम पहले के साधना वृतांत में चर्चा कर चुके हैं.
क्रमशः…।
… अब मै शिवप्रिया।
जहां शिव ने खुद को पीड़ा मुक्त करने के लिये मंदाकिनी में डुबकी लगाई उस जगह को अब रुच्छ महादेव के नाम से जाना जाता है. जिस पत्थर पर लेटे वही रुच्छ महादेव शिवलिंग है. उसी पत्थर पर लेटकर शिव ने तबाही मचा रही काली मां को पत्थर बनाया था. रुच्छ महादेव का मां काली के पत्थर बनने और जमीन में समा जाने से क्या सम्बंध है. ये रहस्य मै आगे लिखुंगी.
साथ दिये चित्र में गुरु जी रुच्छ महादेव सरस्वती व मंदाकिनी नदी के उसी संगम पर साधना करते दिख रहे हैं जहां भगवान शिव ने अपनी पीड़ा मिटाने के लिये डुबकियां लगाईं थीं.
तब तक की राम राम।
शिव गुरु जी को प्रणाम।
गुरु जी को प्रणाम।
Ram ram guruji, Shivpriyaji.
राम राम गुरू जी,
मैं ने सभी post पढी , पढने में इतना मग्न था कि लिखे गए एक एक प्रसंग जैसे आँखो सामने हो रहा ऐसा महसूस किया .
भगवान शिव कोटी कोटी धन्यवाद (राम राम) कि उन्होने आपसे मिलाया.
भगवान शिव को यही प्रार्थना कि आपसे दर्शन कर सकु !!