रहस्यमयी दैवीय इंजीनियरिंग का प्रमाण गुप्त काशी सिद्धियों के लिये लाजवाब है

गुरु जी की हिमालय साधना…11SHIV MANDIR GUPTKASHI
 
राम राम, मै शिवप्रिया
गुरु जी पिछले दिनों अपनी गहन साधना के लिये देव भूमि हिमालय की शिव स्थली केदार घाटी में रहे। 12 अगस्त को साधना पूरी करके हरिद्वार लौटे। लंबे समय बाद हरिद्वार में हम उनसे मिले। 13 को दिल्ली आश्रम से उच्च साधकों का एक दल हिमालयन साधना के लिये हरिद्वार गया। मै भी उनमें थी। वहीं गुरु जी से मिलना हुआ। मृत्युंजय योग से जुड़े साधक प्रेरणा ले सकें। इसके लिये मैंने गुरु जी से उनका साधना वृतांत विस्तार से बताने का अनुरोध किया। यहां मै उन्हीं के शब्दों में उनका साधना वृतांत लिख रही हूँ।
 
|| गुरु जी ने बताया…||
गुप्त काशी पहुँचते ही मैंने बाबा विश्वनाथ मन्दिर में साधना शुरू कर दी।
गुप्त काशी में काशी की ही तरह विश्वनाथ मंदिर है। मगर मन्दिर की बनावट केदार धाम की है। इसीलिये इसे छोटा केदार भी कहते हैं। जो लोग रास्ते की कठिनाइयों के कारण केदार धाम नही जा पाते वे यहीं दर्शन करके केदार जैसा पुण्य अर्जित कर लेते हैं। बाहर से भीतर तक मन्दिर केदार धाम की कॉपी है। यहां तक कि गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंग भी केदार नाथ शिवलिंग की कॉपी ही है। वह भी तिकोने पत्थर की शिला पर बना है। अगर उसका आकर बढ़ाकर 10 से 15 गुना तक कर दिया जाये तो केदार नाथ शिवलिंग जैसा ही नजर आएगा।
बाहर से मंदिर की बनावट हूबहू केदार मन्दिर की तरह है। सिर्फ आकार में छोटा है। भीतर भी वैसा ही बना है।
पास में अर्द्धनारिश्वर मन्दिर है। जहां काशी की तरह कालभैरव कोतवाल यानि रक्षक हैं। अर्द्धनारिश्वर मन्दिर में पांडवों के समय के पत्थरों से बने हथियार भी स्थापित हैं। इस मन्दिर का निर्माण भी केदार मन्दिर की तरह पांडवों द्वारा कराया गया था।
बाबा विश्वनाथ की गुप्त काशी की एक आधुनिक विशेषता ये दिखी कि वहां कोई भिखारी नही। वहां कोई भीख नही मांगता। यहां दूसरे तीर्थों की तरह जगह जगह मंदिरों की भरमार नही हैं. सभी की आस्था बाबा विश्वनाथ के मंदिर पर ही केंद्रित हैं.
गुप्त काशी को मोक्ष का गुप्त मार्ग भी माना जाता है।
गुप्त काशी का विश्वनाथ मन्दिर दिव्य है, सिद्ध है, पौराणिक है और विज्ञान के लिये रहस्य है। जिस दिन विज्ञान इसके रहस्य का पता लगा ले उस दिन वैज्ञानिक खुद को गॉड पार्टिकल तलाशने के काबिल मान सकते हैं।
यहां का वैज्ञानिक रहस्य ये है कि मन्दिर गंगा और यमुना की भूमिगत धाराओं पर बना है। सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित गंगोत्री और यमुनोत्री से आने वाली ये भूमिगत धाराएं पहाड़ों के भीतर ही भीतर यहां तक पहुंची हैं। रास्ते में ये कहीँ दिखाई नही देतीं। बताया जाता है कि जब गंगोत्री व यमुनोत्री में यज्ञ होते हैं. उनके अवशेष तिल आती धारा में प्रवाहित होते हैं. तो वे गभूमिगत जल धाराओं के जरिये गुप्त काशी के मणिकर्टिका कुंड तक पहुंचते हैं.
चित्र में आपको मंदिर से बाहर बना मणिकर्टिका कुंड दिख रहा है. जिसमें मंदिर से बाईं तरह पीतल का गौमुख दिख रहा है. उससे यमुना जी की धारा प्रवाहित है. दांयी तरह जीतल का गणेश मुख ( हाथी मुख) है. जिससे गंगा जी की धारा आ रही है. इसका पानी परीक्षण में गंगा जी की तरह ही निकलता है. इस पानी को किसी बोतल या बर्तन में भरकर रखें तो कई साल तक खराब नही होता. जबकि गौमुख से आने वाला पानी यमुना के पानी की तरह कुछ दिनों में खराब हो जाता है.
गुप्त काशी के लोग गणेश मुख से आ रहे गंगा जल को ही अपने घरों में पीने के लिये यूज करते हैं. अधिकांश घरों के लोग मंदिर में शिवाभिषेक करने आते हैं. और डरीकेन व डिब्बों में पानी भरकर ले जाते हैं. लही पीते हैं. वैसे गुप्त काशी के आस पास कुछ पहाड़ी झरने हैं. लोगों ने उनके मुहाने पर अपने अपने पाइप लगा रखे हैं. उन्हीं पाइप के जरिये उनके घरों तक वाटर सप्लाई होती है.
प्रकृति की ये इंजीनियरिंग विज्ञान के बस की बात नही। वहां जो सामने हो रहा है उसके बारे में इन्शान सोच भी नही सकता। गंगोत्री और यमुनोत्री की गुप्त काशी से दूरी नापी जाये तो अलग अलग दिशाओं के कई सौ किलोमीटर दूर होगी। फिर भी दोनों नदियों की गुप्त धाराएं यहां तक सुचारू रूप से आ रही हैं। ऊँचे और कठोर पहाड़ों के भीतर सैकड़ों किलोमीटर लम्बी जल सुरंगे किसने और कैसे बनाईं? अलग अलग जगहों से आ रही गुप्त जल धाराएं यहाँ आकर कैसे इकट्ठी हुईं?
मन्दिर इन्हीं धाराओं के ऊपर बनाया गया है। पहाड़ों के भीतर से आई गुप्त जल धाराएं मन्दिर के पीछे की तरफ से प्रवाहित हो रही हैं। पीछे ऊँचे पहाड़ हैं। मन्दिर के नीचे से निकलकर जल धाराएं एक कुण्ड में गिरती हैं। कुण्ड में दोनों धाराओं का पानी मिलकर एक हो जाता है।
इतनी सटीक जलापूर्ति महज इत्तिफ़ाक नही हो सकती। ये दैवीय इंजीनियरिंग का ही प्रमाण है।
मंदिर के नीचे से हर पल प्रवाहित पवित्र जल धाराओं से वहां की उर्जाओं का स्तर बहुत बढ़ा चढ़ा रहता है. सीधे शब्दों में कहें तो वहां की उर्जायें दैवीय उर्जाओं से जुड़ी रहती हैं. इसी कारण साधकों द्वारा छोटे प्रयास भी यहां बड़ी सिद्धियां सुनिश्चित कराते हैं. मैने यहां पहली बार साधना की. मगर जो हाशिल किया वो शब्दों से परे हैं. यहां शिव को पाया जा सकता है. देवी को पाया जा सकता है. शक्तियों को पाया जा सकता है. सिद्धियों को पाया जा सकता है.
ये देवों के देव काशी नरेश महादेव की नगरी है. इसका प्रमाण यहां की शक्तियां हर क्षण देती हैं. मगर साधकों को ध्यान रखना होगा यहां शक्तियों का विचरण गुप्त है. उसे समझने की अध्यात्मिक कला की जानकारी जरूरी है. शायद इसी लिये इसे गुप्त काशी कहा गया.
एक मान्यता है कि भगवान शिव ने गुप्तकाशी में देवी पार्वती जी के समक्ष गोपनीय रूप से विवाह का प्रस्ताव रखा था. इसलिए इस स्थान को गुप्तकाशी कहा गया. बाद में शिव पार्वती का ये प्रसंग केदार धाम के पास गौरीकुंड में फलीभूत हुआ.
 
दूसरी प्रचलित कथा है कि जब पांडवों ने जब अपने वंशजों को मार डाला तो ब्रह्मांडीय शक्तियां उनके विपरीत हो गईं. वे बहुत बेचैन रहने लगे. धर्म की भाषा में वे बड़े पाप के शिकार हो गये. क्योंकि सारे झगड़े की जड़ जायदाद थी. जायदाद के लिये अपने सभी वंशजों को मार डाला, अपने गुरुओं को भी मार डालना ये प्रकृति के नियमों में नही आता. युद्ध धर्म अधर्म के नाम पर लड़ा गया. जबकि तत्कालीन समीक्षाकारों के मत में ये बात सिर्फ न्याय अन्याय की थी. जिसके लिये सिर्फ दुर्वोधन का अहंकार और कुटिलता जिम्मेदार थी. मगर वहां तो गुरु और पूर्वज भी मार दिये गये. नाते रिश्तेदार भी मारे गये.
महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ. बहुसंख्य लोग मारे गये. न्यूक्लियर हथियारों की तरह उस समय के सर्वाधिक घातक हथियारों का उपयोग हुआ. जिसके कारण अनगिनत निर्दोष भारी मारे गए. प्रकृति को भी भारी नुकसान हुआ. इन सबका नतीजा ये निकला कि पांडवों के मन बहुत बेचैन हो गये. उन्हें पाप ग्रस्त घोषित कर दिया गया.
भगवान कृष्ण उनकी बेचैनी दूर न कर सके. बल्कि उनकी दशा देख खुद भी बेचैन हुए. उन्होंने पांडवों को भगवान शिव की शरण में जाने को कहा. पांडव शिव क्षेत्र केदार घाटी में आ गये. मगर उनके कृत्यों से शिव नाखुश थे. इसलिये वे पंडवों के समक्ष नही आना चाहते थे. युधिष्ठर ने उन्हें मनाने के लिये तपस्या की. और उनसे मोक्ष की राह पूछी. शिव ने उन्हें इसी जगह पर गुप्त दर्शन दिये. इस कारण इस जगह को गुप्त काशी कहा गया. शिव ने युधिष्ठिर से कहा कि वे एक यज्ञ करें. जिसमें सभी राजाओं और विद्वानों को बुलायें. सब आकर आहुतियां दें. तो पांडवों को मोक्ष मिल जाएगा. इतना कहकर शिव ने गुप्त काशी को छोड़ दिया और केदार की तरफ चले गये. ताकि पांडव दोबारा उन्हें ढ़ूंढ न पायें.
पांडवों ने अश्वमेघ यज्ञ का उद्घोष किया. बड़ी तैयारियां की गईं. मगर यज्ञ में शामिल होने कोई भी नही आया. पांडव निराश हुए. यज्ञ का उद्देश्य विफल हो गया. तब वे दोबारा शिव को ढ़ूंढ़़ने केदार की तरफ निकल पड़े.
क्रमशः…।
 
… अब मै शिवप्रिया।
आपके लिये गुरु जी द्वारा बताया आगे का वृतांत जल्दी ही लिखुंगी।
तब तक की राम राम।
शिव गुरु जी को प्रणाम।
गुरु जी को प्रणाम।

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