प्रणाम मै शिवांशु,
साधना करने के लिय हम कार से केदारनाथ जा रहे थे। दिन भर कुछ न खाने के काण मै भूखा था। गुरुदेव ने लखीमपुर पास सूनसान जगह पर गाड़ी रुकवाकर दी। और वहीं भोजन की व्यवस्था करने की बात कही। इस बात को लेकर मै असमंजस में था।
अब आगे……
(एक साधक होने क नाते आपने मेरी आप बीती से कब क्या सीखा ये जरूर लिखें। हो सकता है कहीं आपके नजरिये में परिवर्तन की जरूरत हो। जरूरत हुई तो आपके कमेंट पर सुझाव दूंगा। कमेंट में सवाल न पूछें, सिर्फ अपनी राय लिखें।)
सड़क पर गाड़ी रुकने से झोपड़ी के बाहर खेल रहे बच्चों का ध्यान हमारी तरफ खिंच गया था। वे खेलना बंद करके हमारी तरफ ही देख रहे थे।
गुरुवर ने इशारे से उन्हें बुलाया।
मगर वे नही आये, बल्कि भागकर झोपड़ी में घुस गये। शायद उनके माता पिता ने समझा रखा होगा कि किसी अजनबी के बुलाने पर मत जाना।
कुछ देर बाद झोपड़ी से एक युवक व एक युवती निकली। बच्चों ने उन्हें हमारी सूचना दे दी होगी। दोनों हमारे पास आ गये।
गुरुदेव ने मुझसे कहा बिस्किट के पैकेट निकाल लो।
गुरुवर की आदत है कि वे जरुरत मंद बच्चों को बिस्किट बांटते रहते हैं। सो जब भी मै उनके साथ होता हूं तो बिस्किट के छोटे पैकेट साथ रखता हूं। आज भी 200 पैकेट लेकर गाड़ी की बैक में रख लिये थे। बैक से 10 पैकेट निकालकर गुरुवर को दिये। उन्होंने झोपड़ी से आये युवक को देकर कहा अपने बच्चों को देना। वह बहुत खुश हो गया।
वे दोनो पति पत्नी थे।
पूछने पर युवक ने अपना नाम प्रदीप बताया। उनका गांव थोड़ी दूर आगे था। लेकिन गांव का घर ढ़ह गया था। अब वे खेत में झोपड़ी बनाकर रहते थे।
वे बहुत गरीब थे।
कुछ देर बातें करने के बाद एेसे लग रहा था जैसे दोनो गुरुवर के बहुत करीबी हों।
कुछ देर बाद गुरुवर ने प्रदीप की पत्नी से पूछा बहन तुमने रात का खाना बना लिया।
उसका नाम छाया था। उसने कहा अभी नही बनाया बाबू जी।
तो हमारे लिये भी बना लेना। आज रात का खाना हम यहीं खाएंगे।
छाया सकपका सी गई। उलझन से प्रदीप की तरफ देखने लगी। जैसे कह रही हो लम्बी कार से चल रहे लोगों को खिलाने लायक तो हमारे पास कुछ है ही नहीं।
सकपका तो मै भी गया। गुरुदेव तो भोजन करते नही। तो क्या मुझे झोपड़ी वालों का खाना खाना पड़ेगा। इससे पहले मेरे जीवन में एेसा कभी न हुआ था। मै छाया और प्रदीप को देख रहा था। उनके कपड़े मैले कुचैले से थे। हाथ पैर भी गंदे से दिख रहे थे। इनके हाथ का बना खाना खाना पड़ा तो गले से नीचे ही नही उतरेगा।
मै तो सोच रहा था कि गुरुवर किसी चमत्कारिक सिद्धी से भोजन उत्पन्न करने वाले हैं। लेकिन यहां तो कहानी ही उल्टी दिख रही थी।
नकारात्मक विचारों की श्रंखला दिमाग को चकराये चली जा रही थी।
गुरुदेव मुस्करा रहे थे। जैसे मुझसे कहना चाह रहे हों आज तुम्हें जिंदगी सिखा दूंगा।
वे प्रदीप से बोले परेशान न हो। जो है हम वही खा लेंगे। मगर आपको उसके पैसे लेने होंगे।
अरे बाबू जी, प्रदीप ने सकुचाकर कहा, मेहमान तो भगवान होते हैं। हम आप से पैसे कैसे ले सकते। जो रुखा सूखा है प्रेम से बनाकर खिला देंगे।
अच्छा तो जल्दी खाना बनाओ। गुरुदेव ने मुस्कराते हुए मेरी तरफ इशारा करके कहा इनको बहुत तेज की भूख लगी है।
जी बाबू जी कहकर प्रदीव व छाया झोपड़ी की तरफ वापस चले गये। वे एेसे खुश दिख रहे थे, जैसे उनके घर भगवान खाना खाने आ गये हों।
गरीबी इतनी कि दूसरों को खिलाने में संकोच लगे। दिल इतना बड़ा कि एक बार भी इंकार न किया। उल्टे उनके चेहरे खुशी से खिल उठे।
गरीबों का ये बड़प्पन देखकर मन भर आया।
क्या अब भी कोई कह सकता है कि दुनिया से नेकी मिट गई। गुरुदेव ने मेरे मनोभाव जानकर मुझसे सवाल किया।
मै जवाब न दे सका। गला रुंध सा गया था।
तकरीबन 40 मिनट में खाना तैयार हो गया।
छाया और प्रदीप के साथ उनके दोनो बच्चे भी हमें भोज देकर खुशी से उछल रहे थे। खाने के लिये गुरुदेव मुझे लेकर उनकी झोपड़ी में गये।
जमीन पर पुआल बिछाकर बैठे। खाना परोसा गया। लकड़ी जलाकर चूल्हे पर बनी रोटियां और आलू का भुर्ता बना था। उनके पास घी या तेल नही था। सो भुर्ते में आलू के साथ सिर्फ नमक ही था। साथ में हरी मिर्च।
गुरुदेव ने बेझिझक एक रोटी उठा ली। उस पर थोड़ा सा भुर्ता रखकर रोल कर लिया।
उनकी आगे की क्रिया मेरी उम्मीदों से परे थी।
उन्होंने उस रोटी को खाना शुरू कर दिया। कई सालों बाद मै उन्हें खाते हुए देख रहा था। मुझसे बोले इसे एेसे खाओगे तो पूरा स्वाद मिलेगा। फिर आधी खाई हुई रोल रोटी मुझे पकड़ा दी।
मैने उसे खाना शुरू कर दिया।
मुझे नही याद आता है कि कभी किसी फाइव स्टार में खाते समय मुझे इतना स्वाद मिला हो। क्योंकि यहां हम मीठी भावनाओं और अनूठी मेहमान नवाजी का स्वाद चख रहे थे न कि स्वादिस्ट खाने का।
मै भूल गया कि झोपड़ी में बैठा हूं। मै भूल गया कि जमीन पर बैठा हूं। मै भूल गया कि खाना पकाने वालों के कपड़े कितने गंदे और दयनीय हैं। मै भूल गया कि उनके बर्तन कितने विचलित करने वाले हैं। मै भूल गया कि हममें और उनमें कोई फर्क है। मै भूल गया कि मै कौन हूं।
बस याद रहा तो उनके इमोशन, उनका खाना। मै खाता गया। रोल करके मोटी मोटी ढ़ाई रोटी खा गया। अपनी खुराक से थोड़ा ज्यादा।
इस बीच गुरुदेव कार में वापस जा चुके थे।
गुरुदेव के इशारे पर मैने प्रदीप को 5 हजार रुपये दिये। वे लोग रुपये लेने को बिल्कुल तैयार नही थे। गुरुदेव ने उससे कहा ये मेरी तरफ से उधार है। इनसे खाने पीने का कोई छोटा काम शुरु करना। छाया बहुत अच्छा खाना पकाती है। बहुत बरक्कत होगी। उससे कमाकर बाद में वापस कर देना।
हम एक दिन तुमसे पैसे लेने जरूर आएंगे।
भोज के बाद प्रदीप, छाया, बच्चे हमें कार तक विदा करने आये। विदाई के समय वे एेसे उदास थे जैसे उनका कोई बहुत करीबी बहुत दूर जा रहा हो। छाया तो रो ही पड़ी।
हम चल पड़े।
कोई सम्बंध न होते हुए भी उनसे विदा होने का दुख मुझे भी हो रहा था।
मैने गुरुवर से कहा हम यहां फिर आएंगे।
रमता जोगी बहता पानी, यही है जीवन की निशानी। ये जवाब था गुरुदेव का।
फिर सीट पीछे करके आखें बंद कर लीं। शायद वे ध्यान में जा रहा थे।
मै सवालों से घिरा था। दुनिया में लोग इतने गरीब क्यों हैं। गरीबी में पल रहे इन बच्चों का क्या होगा। जिनको खाने में घी, तेल भी नही मिलता उनका शारीरिक व मानसिक विकास कैसा होगा। वे कभी स्कूल जा पाएंगे या नही। अगली बरसात में टूटी झोपड़ी उनको कितना बचा पाएगी।
गुरुदेव यहीं क्यों रुके। छाया के हाथ से बनी आधी रोटी क्यों खा ली। क्या प्रदीप के दिन अब बदल जाएंगे। सवाल और भी थे। जिनके जवाब की मुझे चाह थी।
दो बातें मै बहुत दिनों से नोटिस करता आ रहा हूं। पहली बात ये कि गुरुवर जिन रास्तों से जाते हैं अगर वे कच्चे या खराब होते हैं। तो कुछ ही समय में ही उनका कायाकल्प हो जाता है। दूसरी बात ये कि वे जिस जगह ठहरते हैं, वो जगह जाग जाती है।
रात भर चलकर हम हरिद्वार पहुंच गये।
मै थक गया था। सो रेस्ट के लिये एक होटल में रुक गये।
मै सो गया। तकरीबन 6 घंटे सोया।
उठने पर रूम सर्विस से काफी मंगवायी। तो होटल के रिसेप्शन से कागज की एक चिट भी साथ आई।
उस पर लिखा था। मै कल लौटुंगा। लिखावट गुरुदेव की थी।
मुझे सोता छोड़कर कहां चले गए। वो भी कल तक के लिये।
मै सोया ही क्यों।
उनके साथ न जा पाने का मुझे पछतावा हो रहा था।
…. क्रमशः
सत्यम् शिवम् सुंदरम्
शिव गुरु को प्रणाम
गुरुवर को नमन.