प्रणाम मै शिवांशु

आज परिचय का दिन था. कल की साधना में जो दृश्य, जो लोग दिखे थे, आज मै उनसे परिचित हो रहा था.
पहले मेरे दिमाग में विचार आया था कि जो मै देख रहा हूं वो सब प्रीरिकार्टेड है. क्योंकि जब मै आंखें खोलता तो सब रुक जाता. जैसे ही आंखें बंद करता तो सीन वहीं से आगे बढ़ते नजर आने लगते. सो लगा कि साधकों के मस्तिष्क पर कंट्रोल करके महाराज जी अपनी मर्जी से पहले से सोचे हुए सीन दिखा रहे हैं. न कि ये सब साधना का लाइव है.
मगर वो सब साधना की उपलब्धियों का लाइव ही था. पूर्वनियोजित कुछ भी नही था.
मौन के कारण रात में इस बारे में मै महराज जी से कुछ पूछ न सका. क्योंकि महराज जी को पढ़ना नही आता था. उन्होंने तो सिर्फ सिद्धियों की पढ़ाई पढ़ी थी. जिसका दर्जा वाकई बहुत ऊंचा था.
इशारों से इतना सब पूछा नही जा सकता था. गुरुवर से पूछ नही सकता था. क्योंकि उन्हें पसंद नही है कि कोई साधक साधना के आयाम तय करते समय उनकी आत्म विवेचना करे. गुरुवर कहते हैं इससे कंफ्यूजन और भटकाव का खतरा बना रहता है. साथ ही साधना का आनंद जिज्ञासा की भेट चढ़कर खत्म हो जाता है.
गुरुदेव एेसी जिज्ञासा को बीमारी का नाम देते हैं.
आज की साधना शुरू होने के कुछ देर बाद ही कल की तरह बंद आंखों से दृश्य दिखने लग गये.
मगर आज की स्थिति में काफी बदलाव था. आज मै दिख रहे लोगों को सुन भी सकता था. ये बात अलग है कि कोई कुछ बोल नही रहा था. उनके चलने फिरने की ही आवाजें सुनाई दे रही थीं. मै उन्हें महसूस भी कर सकता था. उनकी सुगंध, उनकी उर्जाओं की छुवन, उनकी मुस्कान सब कुछ महसूस कर रहा था. वे भी मेरी मौजूदगी को महसूस करते प्रतीत हुए. मगर मै उनसे बातें न कर सका.
आज एक बात पता चल गई. दृश्यों में दिख रहे लोग भी मेरी तरह ही अध्यात्म के सफर पर थे. यानी कि वे लोग भी साधक थे. उनकी साधनाओं के तरीके अलग हो सकते थे. मंजिलें अलग हो सकती थीं. लेकिन अपनी दुनिया के डाइमेंशन से बाहर आने पर सबके रास्ते एक हो गये थे. जैसे एक ट्रेन में सवार लोग एक ही राह पर चल रहे होते हैं. ये अलग बात है कि उनमें से कुछ अनारक्षित डिब्बे की सवारी होते हैं तो आरक्षित डिब्बे की. कुछ फर्स्ट ए.सी. के मुसाफिर होते हैं तो कुछ सेकेंड और थर्ड क्लास के. ट्रेन से उतर कर सब अपनी अपनी मंजिल की तरफ चले जाते हैं. सैकड़ों किलोमीटर लम्बा सफर एक साथ तय करने के बावजूद ज्यादातर मुसाफिर एक दूसरे को जानते ही नहीं.
कुछ एेसा ही अहसास महासाधना के सफर का था. सब चलते चले जा रहे थे. सबके चेहरे पर अघोषित मुस्कान थी. सबके चेहरे पर निश्चिंतता था. सबके चेहरे संतुष्ट थे. सबकी आंखों में आकर्षण था. सबके व्यक्तित्व में सौम्यता थी. सभी अनुशासित थे. सभी दिव्य थे. सभी आनंद में थे. मै भी उनमें से एक था.
आज की जानकारी मेरे लिये नई थी.
गुरुदेव कई बार कहते हैं, महासाधना में कोई अकेला नही होता. आज उनकी इस बात का असली अर्थ समझ पा रहा था. अभी तक सोचता था अकेला न होने का मतलब है कि सैकड़ों-हजारों लोग एक साथ साधना कर रहे होते हैं. मगर मेरी समझ भौतिक दुनिया से जुड़ी थी.
आज के हमराही भौतिक दुनिया से अलग के थे.
उनमें काफी लोग धरती वासी नही लग रहे थे.
मतलब ये था कि पूरे ब्रह्मांड में अध्यात्म की शक्ति साश्वत है. एक है. प्राणी चाहे जिस दुनिया के हों अध्यात्म की उपलब्धियां पाने के लिये उनकी राह कहीं जाकर एक हो जाती है. भले ही हमने अपनी दुनिया में धर्म के नाम पर, सुविधाओं के नाम पर अध्यात्म की राहें अलग कर रखी हों. हिंदु, मुश्लिम, ईशाई, यहूदी या कुछ और. धरती वासी, मंगलवासी, चंद्रवासी, ब्रहस्पतिवासी या कुछ और. अध्यात्म में शुरूआत के रास्ते या तरीके सबके अलग हो सकते हैं. मगर एक मुकाम से आगे निकलने पर सबके रास्ते एक हो जाते हैं.
ये आज मेरे सामने प्रमाणित हो चुका था.
मगर अचरज हो रहा था कि मेरे साथ साधना में शामिल महाराज जी के बाकी शिष्य यहां कहीं नही दिखे. तो क्या वे यहां तक पहुंच ही नही पाये. या फिर अपनी क्षमताओं के मुताबिक सब आगे पीछे हो गए. दूसरा जवाब सही थी. कुछ साधकों के लिये पहला जवाब भी सही था.
ये सफर अलौकिक था. सिद्धी की तरफ बढ़ रहे इतने सारे लोगों के बीच खुद को पाकर मै अकल्पनीय आनंद का अमुभव कर रहा था.
कुछ जगहों पर धरती के सिद्ध दिखे. उनमें कई वो हैं जिनके मंदिर बनाकर आज के लोग पूजा करते हैं. वे लोग इस राह के पथप्रदर्शक से लगे. बीच बीच में कुछ लोगों इशारे से बताते से नजर आये कि उन्हें आगे किस तरफ जाना है. उनके इशारों का पालन तो हो रहा था, लेकिन उनकी तरफ कोई आकर्षित नही हुआ. मै भी नहीं.
गुरुदेव इन्हें आध्यात्मिक मित्र कहते हैं.
हम चले जा रहे थे.
मंत्र जाप का पता ही न चला.
आज दो घंटे अधिक समय तक बैठा रहा. तकरीबन यही हाल सभी साधकों का था. क्योंकि 3 को छोड़कर बाकी सभी को महराज जी ने दो घंटे ज्यादा हो जाने पर पानी छिड़ककर बताया कि साधना की अवधि बीत चुकी है. तब हमारी चेतना वापस लौटी. बाकी तीनों निर्धारित समय पर मंत्र जाप पूरा करके उठ गये थे.
आज हम अपने आप में न थे. देवी महासाधना कर रहे थे. मगर देवी मां को पाने का एक भी विचार शेष न बचा था. जैसे देवी मां स्वयं हमारे भीतर स्थापित हो गई हों. विचारों में सब कुछ बहुत बड़ा हो चुका था. कामनाओं, अभिलाषाओं की सीमाओं के पार निकल गये थे. अब कुछ एेसा समझ ही नही आ रहा था जिसे पाने की इच्छा हो.
हमने अंतिम दिन की साधना की तैयारी शुरू कर दी.
जय माता की.
क्रमशः.
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
शिव गुरु को प्रणाम
गुरुवर को नमन.
Par kar anand ki anubhuti ho rahi hain. Bhagyavan hain aap jise yeh avsar mila. Ram Ram Shivanshuji.
Ram Ram
Shivanshu Ji!Pranam.aapki yatra padh kar mujhe na Jane kyo wahi anand mahsus ho raha hai Jo aapne uthaya.Namah Shivay.