प्रणाम मै शिवांशु

पांचवे दिन की साधना पूरी होने के बाद महराज जी ने सभी साधकों को मौन व्रत का आदेश दे दिया.
अगले दिन से हम मौन हो गये.
आगे की साधना के दौरान मौन ही रहना था.
गुरुदेव बताते हैं कि मौन से अपनी निजी उर्जाओं की फिजूलखर्जी रुक जाती है. तब व्यक्ति अपनी अर्जित उर्जाओं का अधिकतम उपयोग कर पाने की स्थिति में रहता है. एक व्यक्ति के पांच किलोमीटर पैदल चलने में जितनी उराजा खर्च होती है. उतनी ही 1 घंटे बातें करने में खर्च हो जाती है. यानी सोकर उठने से दोबारा सोने के बीच अगर 16 घंटे बातें हों. तो 80 किलोमीटर पैदल चलने में खर्च होने वाली उर्जाएं बातों की भेंट चढ़ा दी गईं. औसतन लोग 8 घंटे सोते और 16 घंटे जागते हैं. अधिकांश लोग जगते ही बतियाने लगते हैं. सोने तक बतियाते ही रहते हैं.
आप कल्पना भी नही कर सकते हैं कि जो उर्जाएं रोज बातों में खर्च कर दी जाती हैं उनसे तमाम रुके हुए काम बन सकते हैं. अधूरी सफलताएं मंजिल तक पहुंच सकती हैं. काम होते होते रह जाने की शिकायत से मुक्ति मिल सकती है. कलह से मुक्त हो सकते हैं. विवादों से मुक्त हो सकते हैं. किये गए पूजा पाठ का पूरा फल पा सकते हैं. अभाव समाप्त कर सकते हैं. जीवन में स्थिरता स्थापित कर सकते हैं.
इससे भी गम्मीर बात तब होती है जब लोग उत्तेजना में बात करते हैं. गुस्से, तनाव, उत्तेजना, फ्रस्टेशन में कही गई बातों के समय मणिपुर चक्र की गति बहुत तेज हो जाती है. जिसके कारण उर्जाओं का खर्च एकाएक बढ़कर 9 गुना हो जाता है. यानी कोई व्यक्ति लगातार गुस्से में 1 घंटे बात करे तो उसकी उर्जा में इतनी कमी आएगी जितनी 45 किलोमीटर पैदल चलने पर आती है. उर्जा के इसी अपव्यय के कारण गुस्से में बात कर रहे लोग अक्सर हांफने लग जाते हैं. एक तरह से वे दौड़ लगा रहे होते हैं.
इसी तरह जो लोग खुद को श्रेष्ठ या ज्ञानी या किसी विषय के जानकार साबित करने के लिये तर्क करते हैं. उनकी उर्जायें भी उत्तेजना की तरह ही खर्च होती हैं. क्योंकि वे भीतर से खुद की श्रेष्ठता साबित करने के लिये उतावलेपन के शिकार होते हैं. जिसका मणिपुर चक्र पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. वह अपनी स्पीड बढ़ा लेता है. मणिपुर चक्र की स्पीड बढ़ने का मतलब है उत्तेजना.
गुरुदेव कहते हैं उर्जा का ये नुकसान रोक दिया जाये. तो हर व्यक्ति अपनी समस्याओं को बिना दूसरे की मदद लिये आसानी से हटा सकता है. बीमिरयों से बच सकता है. आर्थिक संकट से बच सकता है. बदनामी से बच सकता है. असफलतायें तो उसे कभी हरा ही न पाएंगी.
इसका मतलब ये नही है कि हमेशा के लिये मौन हो जाया जाये. मकसद ये है कि जरूरत भर की बातें की जायें. उत्तेजना में तो बिलकुल भी न बोला जाये.
छठे दिन से हम साधना के समापन तक के लिये मौन हो गये.
साधना तय समय पर शुरू हुई.
सोचा था आज की साधना में कई रहस्य खुल जाएंगे. जैसे पांचवे दिन की साधना में जिसके आस पास होने का आभास हो रहा था वो कौन था. क्या वे देवी मां थीं. क्या आज वे सम्मुख हो जाएंगी. जो अनजान आवाजें सुनाई पड़ रही थीं, वे कहां की थीं. कल जिन डाइमेंशन की उर्जाओं में ले जाये गये थे. क्या आज वहां हम अपनी मर्जी से आ जा सकेंगे.
मगर एेसा कुछ नही हुआ.
दरअसल साधना की शुरूआत से ही हमारे दिमाग को हाईजैक कर लिया गया. हमें पता भी न चला. मंत्र जाप शुरू करने के 20 मिनट के भीतर हम ब्लैन्क हो गये. बिलकुल एेसे जैसे किसी ब्लैक होल में डाल दिये गये हों.
महराज जी ने साधना के इस चरण का हमें अहसास न होने दिया गया था.
आज की साधना अलग होगी. ये अंदेशा तो था. कल रात ही बता दिया गया था, आने वाली सुबह से सब साधक मौन व्रत धारण कर लेंगे. अब अकेले बैठकर साधना करेंगे. अभी तक हम जोड़े में साधना कर रहे हैं. हमारे आसन बदल दिये गये थे. आज हमने मोटे कम्बल को फोल्ड करके आसन बनाया था. मौन के साथ ही सुबह से जल ग्रहण न करने के भी निर्देश थे.
इससे लगा ही था कि आज कुछ खास होने वाला है.
मगर एेसा खास कि हमारे दिमाग पर कब्जा कर लिया जाये. ये तो न सोचा था.
मेरा मन मेरे वश में ही था, पर दिमाग शून्यता की दशा में था.
एेसी स्थितियों के बारे में गुरुदेव ने कभी कोई चर्चा न की थी. सो इन बातों का मेरे पास कोई जवाब न था. हां मै इतना जरूर जान गया कि मनोरोगियों का इलाज करते समय मनोचिकित्सक दिमाग का इलाज क्यों करते हैं. जबकि एक जैसी प्रतीत होने के बावजूद मन और मस्तिष्क दोनो अलग अलग इकाइयां है. उनके अलग अलग काम हैं. जैसे पैसा कमाना दिमाग का काम है. पैसे का सुख देना मन का काम है. दरअसल डा. दवाओं के जरिये दिमाग को शून्यता की तरफ ले जाकर रोगी के मनोभावों को दबाने की कोशिश करते हैं. अब पता चला गया था कि दिमाग को नियंत्रित करके मनोभावों को दबाया जा सकता है.
साधना की शुरूआत में मेरे मन में तमाम तरह के भाव थे. हलांकि वे सब सकारात्मक ही थे. मै उनके इर्द गिर्द ही सिद्धी तलाश रहा था. शायद ये उचित न था. गुरुवर बताते हैं पूर्वाभाव पूर्वानुमान, पूर्वाभास, पूर्वाग्रह से बाहर आने पर ही सिद्धी सम्भव है.
जबकि अधिकांश साधक पहले से काल्पनिक सिद्धी तय करके रखते हैं. या तो उन्होंने उसके बारे में कहीं पढ़ा होता है, या सुना होता है, या कुछ देखा होता है. उसी के मुताबिक वे एक सिद्धी का डाइमेंशन तय कर लेते हैं. फिर साधना के दौरान उसी डाइमेंशन के पूरा होने की उम्मीद में रहते हैं. जबकि अधिकांश बार उस साधना की सिद्धी की सच्चाई कुछ और ही होती है.
एक बड़ी सच्चाई है कि जब तक हम साधना सिद्धी का मानसिक ले आउट बनाकर रखेंगे या दिमागी ढांचा खींचकर रखेंगे तक तब सिद्धी की सच्चाई से दूर बने रहने की आशंका बहुत ज्यादा होती है.
उदाहरण के लिये अगर हम देवी सिद्धी की बात करें. तो ज्यादातर साधकों का मन-मस्तिष्क पूर्वाग्रह में रहता है. जिसका अंतिम मकसद देवी दर्शन करना होता है. एेसी देवी जो असाधारण वस्त्र और भारी भरकम जेवर गहने पहने हों. जिनके सिर पर मुकुट होना जरूरी है, वे या तो शेर पर सवार हों या शेर उनके आस पास कहीं जरूर हो. उनके हाथ में त्रिशूल और चक्र भी हो. उनके आस पास तेज प्रकाश निकल रहा हो. कई साधकों की ये कल्पना साकार भी हो जाती है. वे बंद आखों से इसे देख भी लेते हैं. वे इसे ही देवी दर्शन कहते हैं. वे यह भी मान लेते हैं कि उनकी साधना सिद्ध हो गई.
मगर, इस देवी दर्शन के बाद भी उनकी समस्यायें, उलझनें ज्यों की त्यों बनी रहती हैं. एेसे लोग अपनी साधना का उद्देश्य प्रायः समस्याओं से मुक्ति पाना ही तय करते हैं. अगर साधना सिद्ध हुई, तो उसका उद्धेश्य स्वतः पूरा हो जाना चाहिये. अगर उद्देश्य अधूरा है तो ये इस बात का प्रमाण है कि साधना सिद्ध हुई ही नही.
अपनी तय की हुई छवि और देवी की वास्तविक छवि में बहुत फर्क होता है. वास्तविक छवि तक पहुंचे तो कभी कभार नही, सिर्फ बंद आंखों से ही नही. बल्कि जब मन चाहे तब और खुली आंखों से भी देवी दर्शन होते रहते हैं. यही नही साधक अपने व दूसरों के हित के लिये देवी की सफलता दिलाने वाली विशाल उर्जाओं का उपयोग कर सकते हैं.
यही देवी सिद्धी है.
इसके विपरीत हमारे भीतर भी कुछ पूर्वाग्रह थे. सिद्धी के लिये उनके दायरे से बाहर निकलना जरूरी था.
शायद इसी लिये महराज जी ने हमारे दिमाग अपने नियंत्रण में ले लिये।
मंत्र जाप पूरा होने के पांच मिनट पहले चेतना वापस लौटी. इस दौरान मै क्या करता रहा, कुछ पता नही. मंत्र जाप कर रहा था या सो रहा था. बैठा था या लुढ़का था. कुछ याद न रहा.
जब साधना से उठा तो बिल्कुल तरो ताजा था. मन निर्दोष था. कोई पूर्वा भाव न थे. मन मस्तिष्क को साफ कर डाला गया था. मै निर्मल स्थिति में था. दूसरे साधकों के चेहरे देखकर लग रहा था कि उनके साथ भी एेसा ही कुछ हुआ है.
अब देवी मिलन की इच्छा न बची थी.
याद था तो सिर्फ साधना का उद्देश्य.
जो देवी दर्शन का न था.
जय माता की.
क्रमशः.
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
शिव गुरु को प्रणाम
गुरुवर को नमन.
Ati Gyanwardak hain. Ram Ram