
कैसे बचाये वासुदेव ने देवकी के प्राण ?
राम राम, मैं शिवप्रिया ।
सुकदेव जी ने कहा- “परीक्षित ! प्राचीन काल में मथुरामंडल और शूरसेन मंडल के यदुवंशी राजा थे शूरसेन।
उस समय मथुरा ही समस्त यदुवंशी नरपतियों की राजधानी हो गयी थी। एक बार मथुरा में शूर के पुत्र वासुदेव जी विवाह करके अपनी नवविवाहिता पत्नी देवकी के साथ घर जाने के लिए रथ पर सवार हुए , उसी समय अपनी अति प्रिय चचेरी बहन को खुश करने के लिए उग्रसेन के पुत्र कंस ने रथ की कमान अपने हाथो में ले ली । विदाई के समय वर वधु के मंगल के लिए शंख, तुरही, मृदंग, दुन्दुभिया बजा कर उन्हें विदा किया गया । मार्ग में जाते समय अचानक से कंस को सम्बोधित करते हुए आकाश वाणी हुयी – ‘ अरे मूर्ख ! जिसको तू रथ में बैठा कर लिए जा रहा है ,उसकी आठवे गर्भ की संतान तेरा वध करेगी ।’ (कंस घोर पापी था, वह भोज वंश का कलंक ही था ।)
आकाश वाणी सुनते ही उसने अपनी तलवार निकाली और अपनी बहन को मारने के लिए तैयार हो गया , उसका क्रूर रूप देख कर महात्मा वासुदेव उसको शांत कराते हुए बोले- ‘ राजकुमार ! आप भोज वंश के होनहार एवं शूरवीर पुत्र है । अपने कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं । बड़े बड़े शूरवीर आपका गुड़गान करते है । इधर यह एक तो स्त्री, दूसरे आपकी बहन और तीसरे यह एक विवाह का शुभ अवसर ! ऐसी स्तिथि में आप इसे कैसे मार सकते है।
वीरवर ! जो जन्म लेते है, उनके शरीर के साथ मृत्यु भी उत्पन्न होती है , आज हो या सौ वर्ष बाद हो , मनुष्य के शरीर का अंत हो जाता है परन्तु उसके कर्म ही उसके आगे की यौनियो को तय करते है । जैसे चलते समय मनुष्य एक पैर जमा कर ही दूसरा पैर उठाता है और जैसे जोंक किसी अगले तिनके को पकड़ लेती है तभी पकडे हुए तिनके को छोड़ती है वैसे ही जीव भी अपने कर्म के अनुसार किसी शरीर को प्राप्त करने के बाद ही इस शरीर को छोड़ता है ।
जो जीव अपना कल्याण चाहता है , उसे किसी से द्रोह नहीं करना चाहिए ; क्योकि जीव कर्म के आधीन हो गया है और जो किसी से भी द्रोह करेगा , उसको इस जीवन में शत्रु से और जीवन के बाद परलोक से भयभीत होना ही पड़ेगा। कंस ! यह आपकी छोटी बहन अभी बच्ची और बहुत मासूम है। आप इससे बहुत प्रेम भी करते है ।यह तो आपकी बेटी के समान है। अभी अभी इसका विवाह हुआ है, विवाह के मंगल चिन्ह भी इसके शरीर से नहीं उतरे है । ऐसी दशा में आप जैसे दीनवत्सल पुरुष का इस बेचारी का वध करना उचित नहीं है ।’
इस प्रकार वासुदेव जी ने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि भेदनीति से कंस को बहुत समझाया परन्तु कंस तो राक्षसों का अनुयायी हो रहा था ।
वासुदेव जी ने कंस का विकट हठ देख कर यह विचार किया की किसी तरह यह समय टल जाए । वासुदेव जी ने विचार किया ‘ बुद्धिमान पुरुष को, जहा तक उसकी बुद्धि और बल साथ दे , मृत्यु को टालने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रयत्न करने पर भी वह ना टल सके, तो प्रयत्न करने वाले का कोई दोष नहीं रहता । इसीलिए इस मृत्यु रूप कंस को अपने पुत्र दे देने की प्रतिज्ञा करके मैं दीन देवकी को बचा लूँ । भविष्य में जो विधाता चाहेंगे वही होगा, उसे कोई टाल नहीं सकता ।’
ऐसा निश्चय करने के बाद वासुदेव जी ने कंस की बहुत प्रशंसा की और बोले – ‘ सौम्य ! आपको देवकी से तो कोई भय नहीं है, जैसा की आकाश वाणी ने कहा हैं, भय है पुत्रो से, सो इसके पुत्र मै आपको लाकर सौप दूंगा ।’
कंस जानता था वासुदेव जी के वचन झूठे नहीं होते और इन्होने जो कुछ कहा है वह सही भी है इसीलिए उसने अपनी बहन देवकी को मारने का विचार छोड़ दिया । इससे वासुदेव जी बहुत प्रसन्न हुए और उसकी तारीफ़ करी फिर अपनी पत्नी के साथ अपने घर चले गए ।
देवकी बहुत सती-साध्वी थी । उसके शरीर में देवी-देवताओं का वास था । समय आने पर देवकी ने आठ पुत्रों को और एक कन्या को जन्म दिया । देवकी के पहले पुत्र का नाम कीर्तिमान था । पहले पुत्र के जन्म पर वासुदेव बहुत खुश थे परन्तु यह ख़ुशी कुछ ही छड़ की थी ,क्यूंकि उन्हें वह पुत्र कंस को सौंपना था ।उन्होंने दुखी मन के साथ अपने वचन का पालन करते हुए उस पुत्र को कंस को सौंप दिया ।कंस ने देखा कि वासुदेव जी ने मन में इतनी पीड़ा होने पर भी, अपने वचन का पालन करने के लिए अपने पुत्र का बलिदान दे दिया था । कंस इस बात से प्रसन्न हो गया ।कंस ने हँसकर वासुदेव जी से कहा – ‘ वासुदेव जी ! आप इस नन्हे राजकुमार को वापस ले जाईये । आकाशवाणी में आठवे पुत्र कि बात हुई थी , तो मुझे इस बालक से कोई भय नहीं है ।’
वासुदेव जी ने कंस का शुक्रिया किया परन्तु उन्हें अभी भी मन में संतुष्टि न थी , क्यूंकि उन्हें पता था कि कंस बहुत ही दुष्ट है और उसका मन कभी भी किसी भी विचार कि वजह से बदल सकता है ।
वासुदेव जी मन में इस विचार को सोचते हुए घर को लौट गए ।“
क्रमशः!