सुनसान के साधक…1
सभी अपनों को राम राम।
कुछ साधकों ने सुनसान पहाड़ी जंगलों में साधनाएं कैसे होती हैं? वहां के साधक कैसे होते हैं? उन्हें किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है?
इस बारे में जानने का अनुरोध किया है।
छोटे से दिखने वाले इन सवालों के जवाब बहुत बड़े हैं। उन्हें 10-20 वाक्यों में बताया समझाया नही जा सकता। उनके लिये वृतांत की जरूरत है।
साधकों के आग्रह पर मै अपनी हिमालय साधना के कुछ वाकिये बता रहा हूँ। शायद इनसे उपरोक्त सवालों के जवाब मिल सकें।
इससे पहले ऊर्जा का एक सिद्धांत ध्यान में रख लें। यह कि ऊर्जा अपनी समधर्मी ऊर्जा को आकर्षित करती है। इसी कारण एक प्रवृति के लोग स्वतः एक दूसरे की तरफ आकर्षित होकर अपनी प्रवृति का समूह बना लेते हैं। शराबी शराबी की तरफ, अपराधी अपराधी की तरफ, आस्तिक आस्तिक की तरफ अधिक आकर्षित होते हैं। और उनका समूह या गिरोह बन जाता है।
यह नियम साधकों पर भी लागू होता है। अलग अलग प्रवृति के साधक स्वतः अपने समधर्मी साधक की तरह आकर्षित हो जाते हैं।
पहाड़ों, जंगलों में साधना तपस्या करने वाले भी ऊर्जा के इस सिद्धांत से बंधे होते हैं।
यही कारण है जो इंसानी भीड़ के जंगल से दूर सुनसान में साधना करने गए साधक निर्जन में भी एक दूसरे से मिल ही जाते हैं।
4 घण्टे की खड़ी तपस्या के लिये मैने एक जगह खड़े रहकर मन्त्र जप करने की बजाय पहाड़ी जंगलों में घूमते हुए साधना करने का निर्णय लिया था। नियम इतना था कि उन 4 घण्टों में किसी भी रूप में बैठना या लेटना नही था।
4 घण्टे घूमने के लिये मैने मणिकूट पर्वत के जंगलों को चुना। यहां के जंगलों जैसी वनस्पतियां कहीं और नही हैं। उनमें बड़े औषधीय गुण हैं। पृथ्वी पर संजीवनी बूटी यहीं उत्पन्न होती है। कहीं और संजीवनी बूटी उत्पन्न होने के प्रमाण नही मिलते।
रामायण काल में हनुमान जी श्री लक्ष्मण जी के प्राण बचाने के लिये यहीं से संजीवनी बूटी ले गए।
यह क्षेत्र हमेशा से ऋषियों मुनियों और तांत्रिक साधकों के आकर्षण का केंद्र रहा है।
भगवान शिव ने इसी क्षेत्र में 60 हजार साल तक ध्यान तप किया। उसी स्थान पर अब उन्हें नीलकंठ के नाम से पूजा जाता है।
मां पार्वती ने अपने पति भगवान शिव के प्राणों की रक्षा के लिये यहां 40 हजार साल तक तप किया। उनके तप स्थल को अब भुवन के नाम से पूजा जाताहै।
गुरु गोरखनाथ ने इस क्षेत्र को अपनी तंत्र सिद्धियों के प्रयोग के लिये चुना। उस स्थान को अब झिलमिल गुफा के नाम से पूजा जाता है।
एक तरफ दूर तक फैले पहाड़ और उनके जंगल दूसरी तरफ गंगा मइया की पवित्र धारा। बड़ा ही अनुपम और मनोहारी संगम है यह।
इस क्षेत्र को वन विभाग ने सामान्य उपयोग के लिये प्रतिबंधित घोषित कर दिया है। पगडंडियों से पहाड़ी जंगलों में जाने पर सख्त रोक है। वहां बेलदार, हाथियों के झुंड, चीते, भालू व अन्य खतरनाक जानवरों के हमले का खतरा होता है।
इस बारे में वन विभाग और पुलिस विभाग की चेतावनी वाले बोर्ड हर तरफ लगे हैं। फिर भी लोग और मवेशी अक्सर जंगली जानवरों के शिकार होते ही रहते हैं। प्रायः तो उनकी डेड बॉडी ही नही मिलती। जानवर उन्हें खाकर खत्म कर देते हैं।
इन खतरों के बाद भी यह क्षेत्र साधकों को आकर्षित करता है।
कारण है यहां के वातावरण में फैली दिव्य ऊर्जाएं। जो साधना सिद्धि में बड़ी सहायक होती हैं।
सावन में खतरे कम हो जाते हैं। क्योंकि नीलकंठ यात्रा पर निकले कावड़िये शिवभक्त प्रायः ऊंची आवाज में नारे लगाते हुए चलते हैं।
पैदल कावड़िये भक्तों के रास्ते घने जंगल और पहाड़ियों के बीच से जाते हैं। 8 किलोमीटर तक उन्हें पहाड़ों, जंगलों से ही गुजरना होता है।
उनकी सामूहिक आवाज पहाड़ी जंगलों में बहुत दूर तक फैल जाती है। जिसे सुनकर जंगली जानवर बहुत गहरे जगंलों में जाकर छिप जाते हैं। जहां कम ही लोग जा पाते हैं।
जो लोग जीवन में रोमांच के शौकीन हैं उन्हें एक बार नीलकंठ की पैदल यात्रा जरूर करनी चाहिये।
3 घण्टे की यह यात्रा जीवन भर रोमांच और उत्साह को भूलने न देगी।
यह क्षेत्र भी मेरी इस बार की साधना का हिस्सा है।
साधना के दूसरे दिन मै इसी रास्ते जंगलों में घुसा।
मुख्य रास्ते से तमाम पगडंडियां पहाड़ी जंगलों के भीतर दूर तक जाती हैं। कई बार तो वे एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ तक जाती हैं।
हालांकि खतरे के कारण उधर जाना मना है। फिर भी कई साधक प्राकृतिक आकर्षण और निर्जन की तलाश में उधर चले ही जाते हैं।
दूसरे दिन एक पगडंडी पर लगभग 3 किलोमीटर अंदर जाने पर मुझे एक विलक्षण साधक मिले। उनके सारे शरीर पर तितलियां बैठी थीं। इतनी कि गिनती न की जा सके। वे खुद गुमसुम बैठे थे। जैसे इंसान न होकर कोई पुतला हों।
मै उनके पास खड़ा रहा, कई आवाजें दीं।
कोई जवाब नहीं मिला।
क्रमशः
शिव शरणं!