
लोग भगवान की पीड़ा दूर करने के लिये उन पर घी लगाकर मालिस करते है
गुप्त काशी कभी भगवान शिव का गुप्त साधना क्षेत्र था। हरिद्वार चार धाम की यात्रा पर निकलते हैं, तो ऋषिकेश के बाद पहाड़ी ऊंचाईयां शुरु हो जाती है। वहां से तकरीबन 80 किलोमीटर आगे देव प्रयाग है। उर्जा के स्तर पर ब्रम्हांडीय उर्जाओं की मौजूदगी दैवीय होने लगती है। जिन्हें उनका उपयोग करना आता है बड़ी उपलब्धियां हाशिल कर सकते हैं। देवप्रयाग के बाद रुद्रप्रयाग आता है। वहां दैवीय उर्जाओं का स्तर और बढ़ा हुआ मिलता है। रुद्रप्रयाग के बाद उठी मठ है। यहीं गुप्त काशी है।
बनारस की काशी के राजाधिराज देवों के देव महादेव को अपनी प्रजा के हितार्थ एक बार विशेष साधनाओं की जरूरत पड़ी। साधक महान थे, साधनायें विशेष थीं। तो साधना स्थल सर्वश्रेष्ठ होना चाहिये था। भगवान शिव ने अपनी साधनाओं के लिये गुप्त काशी क्षेत्र का चयन किय़ा। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि विश्व में साधनाओं के लिये ये क्षेत्र श्रेष्ठतम में से एक है। तब ये जगह निर्जन और दुरुह थी। कभी कोई इंशान वहां पहुंच पाएगा, एेसा सोचा भी नही जा सकता था। हर तरफ खतरनाक पहाड़ और अपराजित जंगल ही थे।
भोलेनाथ की साधनायें लम्बी चलने वाली थीं। उस दौरान कोई डिस्टर्ब न करे, इसके लिये भोलेनाथ काशी से आकर गुप्त रूप से यहां रहने लगे। साधनाओं के साथ वे अपने पार्षदों के जरिये यहीं से काशी का राजकाज चलाने लगे। सो बाद में इसे गुप्त काशी कहा गया।
भगवान शिव की योजना थी कि बिना व्यवधान के जनहितकारी साधनाओं को पूरा कर लिया जाये। मगर शायद उन्होंने इस पर ध्यान न दिया कि दुनिया में इंशान नाम का प्राणी बड़ा ही जिज्ञाशू है। उसके पास एक खोजी दिमाग भी है। जिसके जरिये वह नित नई खोंजे तो करता ही है, साथ ही अपने ईष्ट को खोजता हुआ कहीं भी पहुंच जाता है।
लोगों ने गुप्तकाशी को भी खोज लिया। कालांतर में वहां विश्वनाथ मंदिर की स्थापना हुई। सर्दियों में भगवान को केदारनाथ धाम से लाकर यहीं स्थापित कर दिया जाता है। सामान्यतः नवम्बर से अप्रैल के बीच उन्हें गुप्त काशी में ही पूजा जाता है। इस दौरान केदारधाम के कपाट बंद रहते हैं। विशेष मूहूर्त में उन्हें डोली में उठाकर केदारनाथ धाम ले जाया जाता है। इसी लिये इस जगह को उठी मठ कहा जाता है। भगवान के उठी मठ से उठकर केदारधाम जाने पर ही केदारनाथ धाम की यात्रा शुरू होती है। कुछ एेसा ही बद्रीनाथ धाम के बद्रीविशाल भगवान के साथ भी होता है। उसके बारे में फिर कभी बात करेंगे।
जब लोगों ने गुप्त काशी में भोलेनाथ को ढूंढ़ निकाला, तब तक उनकी साधनायें पूरी न हे पायी थीं। सो वे उस स्थान को छोड़कर पहाड़ों पर और ऊंचे चढ़ गये। इतनी ऊंचाई पर कि दोबारा कोई इंशान उन तक न पहुंच सके। वे फिर साधना में लीन हो गये।
मगर इंशान की जिज्ञाशा और खोजी दिमाग फिर जीत गया। इस बार पांडवों ने उन्हें ढ़ूंढ़ लिया। अज्ञातवास के लिये वे वहां तक पहुंच गये जहां शिव साधनायें कर रहे थे। पांडवों को 12 साल का अज्ञातवास मिला था। उस दौरान उन्हें कोई पहचान न सके, एेसे भेष या एेसी जगहों पर रहना था। सो वे निर्जन स्थानों पर प्रवास के लिये निकले थे।
पांडवों का इरादा एेसी जगह चले जाने का था, जहां अज्ञातवास के समय उन्हें पहचाना न जा सके। सो पहाड़ों पर चढ़ते हुये वे एेसी जगह पहुंच जाना चाहते थे जहां उनके अलावा कोई पहुंच ही न सके।
मगर वहां तो भगवान शिव पहले ही से मौजूद थे। साधना कर रहे थे।
पांडवों को देखकर वे चिंता में पड़ गये। क्योंकि अगर पांडव वहां से भी आगे बढ़ते तो प्रक्रृति की मार से मारे जाते। लेकिन पांडव खतरों से अंजान आगे बढ़ते ही जा रहे थे। भगवान शिव उन्हें रोकने के लिये सामने भी नही आ सकते थे। क्योंकि वे सामने आ जाते तो पांडव पहचान लिये गये ये सबको पता चल जाता। एेसे में उन्हें दोबारा अज्ञातवास पर जाना पड़ता। जबकि ये 12 साल के अज्ञातवास का अंतिम चरण था।
पांडव कृष्ण के प्रिय थे। सो भगवान शिव उन्हें कोई नुकसान नही होने देना चाहते थे। उन्होंने सोचा किसी जंगली जानवर का रूप बनाकर पांडवों को डराया जाये तो वे आगे नही बढ़ेंगे और यहां से लौटकर किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाएंगे।
एेसा विचार करके भगवान शिव ने भयानक जंगली भैंसे का रूप बनाकर पांडवों को डराने लगे। पांडव बहादुर योद्धा हैं, वे नही डरेंगे। एेसा सोचकर भगवान कुंती को डराने के लिये उसकी तरफ फुंफकारते हुए दौड़े। उसी बीच भीम ने अपनी गदा से उन पर हमलाकर दिया। हाथियों से भी अधिक शक्तिशाली भीम के हमले से भैसे के भेष में भगवान शिव को गहरी चोट लगी। वे वहीं गिर गये और दर्द से छटपटाने ललगे।
पांडवों की आगे की यात्रा रुक गई। अब वे सुरक्षित थे।
कुछ ही देर में पांडवों को अहसास होने लगा कि ये भैसा मामूली नही बल्कि कोई दैवीय शक्ति है। भगवान शिव उसी समय पत्थर में बदल गये। ताकि पांडव किसी के द्वारा पहचान लिये गए यह कोई न कह सके। पांडवों को पता चल गया कि वे भगवान शिव हैं। उन्होंने उनकी सेवा शुरू कर दी।
यही केदारनाथ भगवान हैं। इसी कारण केदारनाथ का शिवलिंग दूसरे ज्योतिर्लिंगों की तरह नही है। वह भैसें की पीठ के आकार में है। जो भक्त केदारनाथ जाते हैं वे शिवलिंग पर घी मलते हैं। ताकि भीम की चोट से होने वाली भगवान की पीड़ा कम हो जाये। लोग अपने दुख दर्द लेकर केदारनाथ दर्शन के लिये जाते हैं। वहां अपनी पीड़ा भूलकर भगवान की पीड़ा दूर करने के लिये उन पर घी लगाकर मालिस करना शुरु कर देते हैं। कामना करते हैं कि भगवान को लगी चोट ठीक हो और उनकी पीड़ा दूर हो जाये।
गुरूजी इन दिनों हिमालय साधना में है। केदारनाथ यात्रा उनकी साधना का अंग है।
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