दान में बच्चे मांगने वाले संत
सभी अपनों को राम राम
*संतो की दुनिया कई बार बड़ी रहस्यमयी लगती है। आज मै ऐसे संत की दिनचर्या बता रहा हूँ जो लोगों से दान में उनके बच्चे मांग लेते थे। दान में ली कुछ युवा हो रही लड़कियों को साथ लेकर चलते थे, उनसे सेवा कराते थे। सतही तौर पर सोचा जाए तो उनकी गतिविधियों पर शक होने लगता था। वे सिद्ध थे, उनके व्यक्तित्व में गजब का आकर्षण था, शब्दों में अकाट्य सम्मोहन था। उन्हें न कह पाना माता पिता के लिये कठिन हो जाता था।*
बात 70 के दशक की है।
गांव में खबर फैली कि मंदिर में कोई पहुंचे हुए बाबा और उनके चेले चेलियां आये हैं। वैसे तो गांव के मंदिर पर अक्सर साधु संत आकर रुकते थे। जैसा कि मैंने पहले बताया गंगा जी की परिक्रमा पर निकले साधु संत विश्राम के लिये राह में ऐसे पड़ाव ढूंढते हैं जहाँ कुछ समय बिता सकें। गंगा किनारे बना हमारे गांव का मंदिर उनके विश्राम का ऐसा ही एक उपयुक्त स्थान था।
मेरी जानकारी में वह पहला अवसर था जब किसी साधु के साथ महिलाएं भी थीं। इस कारण मंदिर पर गांव वालों की भीड़ लग गयी। गांव वाले आस्थावान लोग थे, वे साधु संतों की सेवा में लग जाते थे। उनकी सेवा में भी लग गए।
शाम को स्कूल से लौटा तो मुझे भी मन्दिर पर आए बाबा की जानकारी मिली। साधुओं की सेवा करने में मुझे बड़ा आनन्द आता था। मां से पूछकर मै भी मन्दिर पर गया। वहां आने वाले साधुओं के खाने पीने की व्यवस्था प्रायः हमारे परिवार से ही होती थी।
जब मै मन्दिर पहुंचा तो वहां गांव के काफी लोग मौजूद थे। आगन्तुक साधु मन्दिर से अलग बने कमरे में थे।
कमरे का दृश्य ऐसा था जिसे देखकर शंकालुओं के कलेजे पर सांप लोट जाएं। वे साधु के बारे में उल्टा सीधा सोचे बिना न रह पाए। जबकि श्रद्धालुओं के लिये वह गुरु सेवा का मनोरम दृश्य था।
कमरे की फर्स कच्ची थी। वहां साधु ने धूनी जलवाई थी। धूनी के पास जमीन पर लोगों के बैठने के लिये टाट बिछाये गए थे। लेकिन वहां किसी को बैठने नही दिया गया, लोगों को कमरे के बाहर से दर्शन करने को कहा गया था।
कमरे में एक तरफ कम्बल बिछा था।
कम्बल पर साधु लेटे थे, उनकी उम्र 50 के आस पास रही होगी। दो युवा शिष्याएं उनके पैर दबा रही थीं। एक शिष्या उनके सिरहाने बैठी थी, उसने साधु का सर लगभग अपनी गोद में ले रखा था, उसे हौले हौले दबा रही थी। बताते चलें कि साधु ने उक्त शिष्याओं को दान में प्राप्त किया था। उनके साथ आये 12 शिष्यों में से अधिकांश दान में मिले थे। 12 में 4 युवतियां थीं।
साधु के चेहरे पर गजब का तेज था, उनकी आंखों में जबरदस्त सम्मोहन था। वे कृष्ण भक्त थे, पर उनके व्यक्तित्व का आकर्षण ऐसा था मानो कृष्ण उनके भीतर ही आ बैठे हों। वे वृन्दावन से आये थे। वहां उनका आश्रम था। जब मै बड़ा हुआ तो उनका नाम बड़े संत के रूप में सुना, कालांतर में लगभग 20 साल बाद एक बार मै उनके आश्रम गया तो उपरोक्त में से उनकी दो शिष्याओं ने मुझे पहचान लिया। कमाल की याददाश्त थी। उन देवियों को मेरा नाम तक याद था। जबकि बचपन से उस समय तक मेरी शक्ल काफी बदल चुकी थी। साधु महाराज उन दिनों विदेश गए थे। यहां मै उनके नाम का जिक्र नही कर रहा।
मंदिर के कमरे में मुझे जाने दिया गया। क्योंकि मै साधु के खाने की वस्तुवें लेकर आया था।
कमरे में गया तो साधु ने भरपूर निगाह मुझ पर डाली, कुछ देर देखते रहे, फिर बैठने का इशारा किया।
मै बैठ गया।
उन्होंने पास बुलाया और पूछा तुम ठाकुर साहब के बेटे हो।
मैने सिर हिलाकर हां कहा।
उन्होंने पूछा सेवा करोगे।
मैंने उत्साह पूर्वक हाँ में सिर हिलाया। तब मै स्वभाव से बहुत शर्मिला था, सो बहुत कम बोलता था। वहां भी बिना कुछ बोले बैठा था।
साधु ने अपनी पैर दबा रही शिष्याओं में से एक को इशारा किया, वह उनके पैर छोड़कर हट गई। उसने मुझे पास बुलाकर साधु का पैर मुझे पकड़ा दिया।
मै पैर दबाने लगा। साधु की सेवा का मतलब था उनके पैर दबाना। गांव में जिसे इसका अवसर मिलता वे खुद को सौभाग्यशाली मानते थे। मुझे पैर दबाते देख उनके शिष्य बहुत अचंभित थे। क्योंकि साधु कुछ खास शिष्यों को ही इसका अवसर देते थे। मै तो उनके शिष्यों में भी नही था।
मै अक्सर अपने पिता जी के पैर दबाया करता था, सो ये काम मुझे अच्छे से आता था।
मेरे पैर दबाने से लम्बा सफर करके आये साधु को बड़ा आराम मिला। उन्होंने अपनी शिष्याओं से कहा तुम लोग बाहर जाओ। इस बात से थोड़ी चकित सी हुई उनकी शिष्याएं कमरे से बाहर चली गईं।
साधु पैर दबवाते हुए मुझसे बातें करने लगे। उनकी सेवा करना, उनसे बातें करना बहुत अच्छा लग रहा था।
संत और उनके शिष्य दो दिन रुके। इस बीच मुझे उनकी सेवा का मौका मिलता रहा। उसी बीच मैने महसूस किया कि साधु के लिये स्त्री पुरुष का कोई भेद नही। वे हर इंसान में कृष्ण देखते थे। हर पल अपने आप में खोए रहते थे। कई बार मैंने उन्हें बातें करते वक्त भी कृष्ण भक्ति में खोए पाया।
गजब की भक्ति थी उनकी। मन्दिर में कृष्ण की मूर्तियां नही थीं। वे शिवलिंग में ही कृष्ण को ढूढ़ लेते थे। साथ रहने के दौरान मैंने पाया कि शरीर तो हमारे बीच था पर वे मानसिक रूप से कहीं और जुड़े रहते थे।
मुझे उनमें कृष्ण नजर आते थे।
मन्दिर पर आने के अगले दिन उन्होंने पिता जी को पास बुलाकर खास दान देने को कहा।
पिता जी ने कहा मांगिये महराज सामर्थ भर हम देंगे।
साधु ने मेरी तरफ देखते हुए कहा मुझे अपना एक बेटा दान कर दो।
पिता जी को ऐसी उम्मीद न थी। काफी देर तक वे कुछ न बोल सके। थोड़ा सम्भले तो कहा महराज ये बड़ा बेटा है, घर का सहारा बनेगा, इसे कैसे?
ये कितनों का सहारा बनेगा तुम अभी नही समझ सकते। मै इसे उस लायक बनाऊंगा जहां दुनिया उसका इंतजार कर रही होगी।
ये सब शिष्य मुझे दान में ही मिले हैं। मै ईश्वर द्वारा खास उद्देश्य से धरती पर भेजे गए लोगों को एकत्रित करके उनके उद्देश्य की पूर्ति के अभियान पर हूं। खास मकसद वाले बच्चों को ही मै दान में लेता हूँ। उन्हें ईश्वर के उद्देश्य को पूरा करने लायक बनाता हूँ। मुझे दान देकर आपको अपने बेटे के प्रति कभी निराश नही होना पड़ेगा।
बच्चों का दान मांगने वाले वे अकेले संत नही थे। बहुत से संत बच्चों को दान में लेते हैं, उन्हें संतान की तरह पोषित करते हैं, शिक्षित दीक्षित करते हैं, सिद्धियां अर्जित करने लायक बनाते हैं. लोक कल्याण में उन्हें समर्पित करते हैं।
मुझे तो वे साधु बड़े अच्छे लगने लगे थे। भीतर से मन करने लगा कि उनके साथ जाने को मिल जाये। मगर पिता जी इसके लिये तैयार न हुए।
जब साधु और उनके शिष्यों की वहां से विदाई हुई तब मै बहुत रोया था। लम्बे समय तक वे मेरे दिल में रहे।
शिव शरणं
क्रमशः