संत जो मौसम का तापमान बदल देते हैं
सभी अपनों को राम राम
*साधकों की प्रेरणा के लिये जारी संत गाथा में मै उन्हीं सिद्ध संतों की चर्चा कर रहा हूं जिनसे मै खुद मिला. आज एेसे संत की दिनचर्या बताता हूं जो मौसम के विपरीत वातावरण का तापमान बदलने में सक्षम थे. सर्दियों में गर्मी और गर्मियों में सर्दी पैदा कर देते थे. रहते बहुत सादगी से, बोलते बहुत सादगी से लेकिन उनकी सिद्धियां चमत्कारिक थीं. वे लोगों का भाग्य बदलने में सक्षम थे.*
बात 70 के दशक की है. तब मै गांव में रहता था. कक्षा 6 में पढ़ता था. गांव बहुत पिछड़ा था. वहां 5 के बाद स्कूल नही था. सो छठी में पढ़ने के लिये 8 किलोमीटर दूर के गांव शंकरपुर सराय जाना पड़ता था.
कई बच्चे मिलकर पैदल की जाते थे. उस दिन मै स्कूल से लौटते वक्त अकेला रह गया.
रास्ता गंगा जी के किनारे किनारे था. दाईं तरफ गंगा जी की धारा बाईं तरफ रास्ता. पूरी राह कच्ची पगडंडी सी. बीच बीच में स्थित कुछ गांव. कई जगह रास्ता गांवों से निकल कर गंगा की रेती में गुजरता था.
जैसा मैने पहले बताया गंगा जी की परिक्रमा करने वाले संत उधर से अक्सर गुजरा करते थे. निःसंदेह उनमें से अधिकांश सिद्ध होते थे. तभी तो आश्रमों में रहकर सुविधापूर्वक साधनायें करने की बजाय वे नदी परिक्रमा का कठिन व्रत धारण करते थे. नदियों की परिक्रमा से प्रारब्ध कट जाते हैं. लेकिन नदियों की परिक्रमा कर पाना सबके वश की बात नहीं. क्योंकि नदियों के किनारे प्रायः रास्ते दुर्गम ही होते हैं. उन दिनों नदी किनारे पड़ने वाले शहरों, कस्बों के अतिरिक्त किनारों पर कहीं भी पक्के रास्ते नही होते थे. अभी भी जहां से नदियां गुजरती हैं वहां के अधिकांश रास्ते कच्चे ही हैं. क्योंकि बरसात में नदियों का पानी बढ़कर दूर तक फैल जाता है. जिसे नदी का पाट कहा जाता है. गंगा जी का पाट कई किलोमीटर चौड़ा होता है. वहां पक्के रस्ते बनाये ही नही जा सकते. जो कच्चे रास्ते बनते हैं वे भी ऊबड़ खाबड़ होते हैं. अक्सर बरसात के बाद पुराने रास्ते बहकर खत्म हो जाते हैं, नये बनते हैं.
इसके साथ ही नदियों के आस पास के अधिकांश क्षेत्र जंगली और बीहड़ होते हैं. उनमें जंगली जानवरों और डाकुओं का बड़ा खतरा रहता है. कई क्षेत्रों में लुटेरे साधु संतों को भी लूटते हैं. उनके पास कुछ न मिलने पर गुस्से में वे उन्हें मार डालते हैं. कुछ क्षेत्रों में दूर दूर तक कोई गांव नही होता. वहां आश्रय मिल पाना कठिन होता है.
इन सबके बाद भी जो संत नदियों की परिक्रमा का व्रत निभाते हैं निश्चित ही वे या तो सिद्ध होते हैं या सिद्धी के करीब होते हैं.
जो भी संत गंगा जी की परिक्रमा पर निकलते थे, उन्हें हमारे गांव से होकर ही जाना पड़ता था. गंगा जी की परिक्रमा करने वाले संत गंगासागर से गंगोत्री तक की पैदल यात्रा करते हैं. कुछ संत गंगासागर से गंगोत्री और फिर गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा को एक परिक्रमा मानते हैं.
उस दिन मै स्कूल से लौटते वक्त रास्ते में दूसरे बच्चों से पीछे रह गया. तभी गंगाजी के किनारे के रास्ते पर एक साधु मिले. वे देखने में बहुत ही साधारण थे. हलांकि मै काफी छोटा था. तब मुझे ये नही पता था कि सिद्ध संत का क्या मतलब होता है. मै सभी साधुओं को बाबा जी जानता था, बस और कुछ नही.
तब गंगा किनारे विचरते साधुओं का मिलना वहां आम बात थी.
साधु को देखकर मैने बाबा जी सीताराम कहकर अभिवादन किया.
साधु ने सीताराम बच्चा कहकर जवाब दिया और मुझसे बातें करने लगे. वे मेरे गांव की तरफ ही चल रहे थे. यानि कि वे गंगोत्री जा रहे थे. बातों बातों में उन्होंने मुझसे मेरा नाम, गांव का नाम, माता पिता रिश्तेदारों के नाम पूछे. गांव के बारे में जानकारी ली. गांव वालों के बारे में जानकारी ली. वे मुझसे सामान्य बातें कर रहे थे.
वे सर्दी के दिन थे. गर्म कपड़ों में होने के बाद भी नदी की तरफ से आ रहे ठंडी हवा के थपेड़ों से मै बीच बीच में कांप जाता था.
इस बात को साधु ने भांप लिया.
ज्यादा सर्दी लग रही है तो मेरे पास आ जाओ बच्चा. एेसा कहकर साधु ने मेरा हाथ पकड़ लिया. जिससे मै उनके करीब पहुंच गया. उनके नजदीक जाते ही गर्मी का अहसास होने लगा. इतनी गर्मी कि गर्म कपड़े चुभने लगे. मेरे बाल मन ने इस दिशा में कुछ सोचने समझने की जरूरत ही नही समझी. बस बाबा से बातें करता हुआ अपनी मस्ती में चलता रहा. वहां से गांव लगभग 1 किलोमीटर था. वह दूरी कब तय हो गई पता ही न चला.
बाबाजी ने मुझसे पता कर लिया था कि गांव के बाहर मानदेवी माता का मंदिर है. वे मेरे साथ गांव पार करते हुए मंदिर की तरफ चले गये. मै बीच में अपने घर पर रुक गया. घर पहुंच कर मैने मां को बताया कि रास्ते में एक बाबाजी मिले थे. उन्होंने पीने के लिये दूध मांगा है. रास्ते में साधु ने मुझे बताया था कि वे सिर्फ दूध ही पीते हैं. और कुछ भी नही खाते पीते. मुझसे कहा था कि अपने घर से दूध लेकर मंदिर पर उन्हें दे जाऊं.
मंदिर पर साधुओ का आना जाना सामान्य बात थी. उनके खाने पीने की व्यवस्था प्रायः हमारे घर से ही होती थी. क्योंकि इसके लिये ईश्वर ने हमारे परिवार को सक्षम बनाया था और आस्थावान भी. वैसे पूरा गांव ही आस्थावान था.
मां ने अधिक कुछ पूछे बिना साधु के लिये पीतल के लोटे में भरकर दूध दे दिया. कहा लोटा वापस ले आना.
मै दूध लेकर मंदिर पर गया. वहां एक साधु स्थाई रूप से रहते थे. उन्हें सुहागिन बाबा के नाम से पुकारा जाता था. क्योंकि वे भगवान के लिये महिलाओं की तरह अपना श्रंगार करते थे. उनकी कुटिया के बाहर अलाव जलता रहता था. उस दिन भी जल रहा था. मगर मुझे रास्ते में मिले संत उनके अलाव पर नही बैठे.
वे उससे अलग शिव मंदिर के बाहर बैठे थे.
वहां का सिद्ध शिवलिंग स्वयंभू है. जो रंग बदलता है. जब शिवलिंग में शिववास नही होता तब उनका रंग काला और सूखी पपड़ी लिये हुए होता है. जब शिव जी स्थान पर होते हैं तब शिवलिंग का रंग भूरा और आकर्षक हो जाता है. जब भगवान शिव शिवलिंग में होते हैं तो शिवलिंग का रंग लालिमा में बदल जाता है. एेसा अभी भी होता है.
साधु शिवलिंग को एकटक देख रहे थे.
पास पहुंचकर मैने उनकी एकाग्रता भंग कर दी. कहा बाबाजी लो दूध पी लो.
उन्होंने मुझसे दूध ले लिया और बैठने का इशारा किया. तब तक सुहागिन बाबा के अलाव के पास से उठकर गांव के कुछ लोग वहां आ गये. सब ठंड की कंपकंपी में थे. साधु ने सबको पास बैठने का इशारा किया. वे बैठ गये. साधु के पास बैठते ही सबको गर्माहट मिलने लगी. थोड़ी ही देर में आस पास का तापमान बदल गया. सर्दी के मौसम में वहां गर्मी पैदा हो गई. बाकी लोग भी अलाव छोड़कर वहां आ गये.
इस बात की खबर मिली तो मेरे पिता जी साधु से मिलने मंदिर पर आये. साधु सेवा के बीच उन्होंने उनसे गर्मी पैदा होने का रहस्य जानना चाहा.
साधु ने बताया कि यह एक विद्या है. जिससे मौसम के विपरीत उर्जायें उत्पन्न करके आस पास का तापमान बदल दिया जाता है. शास्त्रों में वर्णित विधान अपनाकर इस विद्या को सिद्ध किया जाता है. इस सिद्धी के द्वारा ही साधक बर्फीले पहाड़ों पर साधनायें कर लेते हैं. तपते रेगिस्तान में सरलता से रह लेते हैं. बड़ी साधनाओं के समय इसका बड़ा उपयोग किया जाता है.
बातों बातों में साधु ने मेरी तरफ देखकर पिता जी से कहा इस बच्चे ने गांव मे मेरी पहली सेवा की है. मेरा आशीर्वाद है ये भविष्य में इस विद्या की सिद्धियां अर्जित करेगा.
हम तो गांव के रहने वाले हैं. ये सब कैसे हो सकता है. पिता जी ने साधु के आशीर्वाद पर संदेह सा व्यक्त कर दिया था.
होनहार विरवान के होत चीकने पात. साधु का कहा हुआ ये वाक्य मुझे अभी तक याद है. उन्होंने कहा विधि का विधान अपनी राहें खुद बना लेता है.
साधु मंदिर पर एक दिन और रुके. इस बीच उनकी दिनचर्या बड़ी ही सामान्य थी. सुबह 4 बजे से रात 8 बजे तक लोगों को पता ही नही चला कि वे एक सिद्ध संत के साथ हैं. अपनी दिनचर्या के बीच वे लोगों को गंगासागर से यहां तक की यात्रा के बीच के अपने अनुभव सुनाते रहे. उन्होंने बताया कि गंगोत्री से वे केदारनाथ जाएंगे और वही रह जाएंगे.
वे सिर्फ दूध पीकर जिंदा थे. दूध में आधा पानी मिलाकर पीते थे. यदि कहीं दूध न मिले तो सिर्फ पानी पीकर रह लेते थे. दूध पीकर रहने की खासियत को छोड़ दें तो उनकी दिनचर्या के सभी कार्य एकदम सामान्य लोगों से दिखते थे. इस कारण उनकी सिद्धियों का अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल था.
आज जब मै उनकी उर्जाओं को रिकाल करता हूं तो पता चलता है कि उनमें लोगों का भाग्य बदलने की क्षमता थी.
शिव शरणं.
क्रमशः